साहित्य किसी भी क्षेत्र के संस्कृति-संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हिन्दी साहित्य में बुन्देलखण्डी संस्कृति को अन्य क्षेत्रों की संस्कृति की अपेक्षा कम महत्व दिया गया है। साहित्य में संस्कृति के संरक्षण की दृष्टि से वृन्दावन लाल वर्मा और मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों में बुन्देलखण्डी-संस्कृति का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। उनके उपन्यासों में निहित बुन्देलखण्ड के भौगोलिक,ऐतिहासिक, सामाजिक-राजनीतिक पहलू, जनजीवन, संस्कृति , बोली आदि का चित्रण, हिन्दी साहित्य में संग्रह के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। वृन्दावनलाल वर्मा तथा मैत्रेयी पुष्पा दोनों साहित्यकारों के उपन्यासों की पृष्ठभूमि बुन्देलखण्ड होते हुए भी उनमें समयकाल और परिवेश के आधार पर कुछ बुनियादी अन्तर हैं।
वृन्दावनलाल
वर्मा के साहित्य में बुन्देलखण्ड का चित्रण
वृन्दावनलाल वर्मा का जन्म 9 जनवरी 1889 को
उत्तर प्रदेश के झाँसी जिले के मऊरानीपुर में हुआ था। वृन्दावनलाल वर्मा के उपन्यासों में बुन्देलखण्ड का मध्यकालीन इतिहास
मिलता है। वह भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के समय बड़े हुए। परिवार से मिले ऐतिहासिक मूल्यों
के कारण उनके मन में बुन्देलखण्ड के इतिहास
से अत्यन्त लगाव उत्पन्न हो गया था।
उन्होंने
अधिकांश साहित्य भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के समयकाल में और उसके पश्चात लिखा, जिसका
प्रभाव उनके उपन्यासों में दिखता है। साथ ही वृन्दावनलाल वर्मा ऐसे परिवार में बड़े
हुए, जो रानी लक्ष्मीबाई की वीरता के गौरवपूर्ण इतिहास से बहुत प्रभावित था। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई उपन्यास के परिचय में उन्होंने लिखा है कि बचपन में
वह अपनी परदादी से रानी लक्ष्मीबाई की वीरता की कहानियाँ सुन-सुन कर बड़े हुए थे। रानी
लक्ष्मीबाई के लिये लड़ते हुए 1858 में उनके परदादा की मृत्यु हो गई थी। बाद में वृन्दावनलाल
वर्मा को उनकी दादी ने भी रानी की वीरता की
कहानियां सुनाईं। बचपन से ही ऐतिहासिक परिवेश में रहने के कारण उन्हें बुन्देलखण्ड के इतिहास से विशेष लगाव हो गया, जो
उनके साहित्य में परिलक्षित होता है।
वृन्दावनलाल वर्मा के उपन्यास, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई’ और कचनार
ऐतिहासिक उपन्यास हैं। इस उपन्यास के परिचय में उन्होंने लिखा है कि रानी लक्ष्मीबाई
स्वराज्य के लिये लड़ी या अंग्रेजों की ओर से
लड़ीं? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिये वह जगह-जगह गये। फलस्वरूप मिली हुई जानकारी
के आधार पर उन्होंने लक्ष्मीबाई पर उपन्यास लिखने का निश्चय किया। उपन्यास के परिचय
में वह कहते हैं,’मैंने निश्चय किया कि मैं उपन्यास लिखूँगा, ऐसा जो इतिहास के रग-रेशे
से सम्मत हो और उसके सन्दर्भ में हो।‘
वृन्दावनलाल वर्मा के संदर्भ में बच्चन सिंह
लिखते हैं कि उन्होंने ‘अपने ऐतिहासिक-उपन्यासों की विषय-वस्तु का चुनाव मध्यकाल से
किया…इसके दो मुख्य कारण प्रतीत होते हैं- एक तो यह कि मध्यकाल की रूमानियत वर्मा जी
की मानसिक वृत्ति के अधिक अनुकूल पड़ी, दूसरा यह के वे जिस क्षेत्र (बुन्देलखण्ड) में
रहते थे वह क्षेत्र मध्यकालीन शौर्य के कारण ही विख्यात है। इस क्षेत्र और उसके इतिहास
से उनका अधिक लगाव होना स्वाभाविक था।”
झाँसी
की रानी लक्ष्मीबाई (1946)
झाँसी
की रानी लक्ष्मीबाई उपन्यास
में भारत में बुन्देलखण्ड के झाँसी जिले की कहानी है। इस उपन्यास में रानी का अंग्रेजों
से युद्ध, झाँसी के किले का चित्रण, सेनाओं का प्रबन्ध, राजाओं के परस्पर युद्धों का
चित्रण और उसी सन्दर्भ में बुन्देलखण्ड का
चित्रण मिलता है।
उपन्यास में वृन्दावनलाल वर्मा ने झाँसी शहर किस प्रकार बसा
है, वहाँ के विभिन्न स्थलों, झाँसी के किले में स्थित तालाब, मन्दिर, सेना की तोपें,
ओरछा आदि का विस्तार से चित्रण किया है। उस
समय गंगाधरराव के शासन में प्रचलित मान्यताओं, प्रथाओं जैसे कि यज्ञोपवीत संस्कार,
पगड़ी बँधवाने की प्रथा, विवाहों में दासियाँ देने की प्रथा आदि, विभिन्न जातियों, नृत्य-गायन
में राजा की रुचि, रानी द्वारा स्त्रियों को शस्त्र चलाने की शिक्षा, पंचायतों एवं
रीति-रिवाजों आदि का चित्रण किया है।
कचनार
(1947)
कचनार
वृन्दावन्लाल
वर्मा का एक ऐतिहासिक उपन्यास है। उपन्यास के परिचय में वह लिखते हैं कि, ‘कचनार के
ऐतिहासिक पहलू के सम्बन्ध में मुझको उतना संकोच नहीं है। उपन्यास में वर्णित सब घटनाएँ
सच्ची हैं। केवल समय और स्थान का फेर है।‘ उपन्यास में धामोनी शहर की कहानी
है जो झाँसी जिले की दक्षिणी सीमा पर स्थित है। उपन्यास के संदर्भ में वृन्दावनलाल
वर्मा लिखते हैं, ’धामोनी गोंडों – राजगोंडों- का था। मुगलों मराठों और बुन्देलों की
जकड़ों में से गोंडों ने हटते-हटते भी इसको खोया और पाया। यह क्रम कई बार घटित हुआ।‘
इस उपन्यास में मुख्यत: धामोनी के राजा दलीप
सिंह की कहानी है। इसके अतिरिक्त इसमें धामोनी के किले, नदी, पहाड़, पेड़, बीहड़, टौरियाँ,
आदि का चित्रण है। वृन्दावनलाल वर्मा ने विभिन्न रीति-रिवाजों, करमा-नृत्य, विवाह में
दासियों को देने की प्रथा, बोली, जनजातियों आदि सभी का वर्णन किया है। उस समय प्रजा के जीवनयापन और विभिन्न पहलुओं को भी अंकित किया गया है।
मैत्रेयी
पुष्पा के साहित्य में बुन्देलखण्ड का चित्रण
मैत्रेयी पुष्पा का जन्म 30 नवम्बर 1944 को
अलीगढ़ जिले के सिकुर्रा गांव में हुआ था, परन्तु उनका अधिकांश समय बुन्देलखण्ड में
व्यतीत हुआ। उन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा झाँसी
जिले के खिल्ली में और परास्नातक की पढ़ाई बुन्देलखण्ड कॉलेज झाँसी से की। उनका लेखन
कार्य मुख्यत: बीसवीं सदी के अन्तिम दशकों में प्रारम्भ हुआ जो अभी तक चल रहा है। मैत्रेयी
पुष्पा के उपन्यास इदन्नमम’, बेतवा बहती रही’ में बुन्देलखण्ड के शहरी और
ग्रामीण दोनों ही परिवेश का चित्रण मिलता है परन्तु गाँव के चित्रण में उनका लगाव अधिक दिखाई
देता है। उनके पात्र अधिकांशतः सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से प्रताड़ित गाँव के
गरीब परिवार होते हैं। बुन्देलखण्ड का समग्रता से चित्रण करते हुए उनके उपन्यासों में
वहाँ की भौगोलिकता, संस्कृति, बोली, जनजीवन, सामाजिक-राजनीतिक परिवेश,आदि सभी समाहित
हैं।
मैत्रेयी पुष्पा के लेखन को बुन्देलखण्ड के
परिवेश से जोड़ते हुए गोपाल राय का कथन है, ‘मैत्रेयी बुन्देलखण्ड के परिवेश और ग्रामीण
समाज को उसके पूरे खुरदुरे यथार्थ के साथ वैसी ही खुरदुरी भाषा के सहारे जीवन्त रूप
में प्रस्तुत कर देती है।‘
मैत्रेयी
पुष्पा के उपन्यासों में आधुनिक बुन्देलखण्ड का चित्रण किया गया है। बुन्देलखण्ड के
शहरी परिवेश के साथ-साथ उन्होंने वहाँ के गाँवों को भी समीप से देखा है। उनके उपन्यासों
में बुन्देलखण्डी बोली का विशेष प्रयोग किया गया है, जो विशेष रूप से संग्रहणीय है।
बेतवा
बहती रही (1993)
मैत्रेयी पुष्पा केउपन्यास बेतवा बहती रही में बुन्देलखण्ड के राजगिरी, सिरसा, चन्दनपुर आदि
गाँवों में रहने वाले निम्न मध्यवर्गीय पात्र हैं। एक गाँव से होती हुई कहानी अन्य
गाँवों से भी जुड़ती है। उपन्यास के प्रारम्भ में
कहानी के विषय में मैत्रेयी पुष्पा लिखती हैं, ‘बेतवा के किनारे जंगल की तरह
उगी मैली बस्तियाँ। भाग्य पर भरोसा रखने वाले दीन-हीन किसान…प्राचीन रूढ़ियाँ हैं जहाँ
सनातन। अंधविश्वास हैं अंतहीन। अशिक्षा का गहरा अँधियारा।‘ उपन्यास में बेतवा एवं बुन्देलखण्ड की अन्य नदियों,
गहरी खाईयाँ, रेतीले ढूह, पारीछा थर्मल प्लान्ट, गाँव के कच्चे-पक्के घर, पहाड़, क्रशर
और खपरैल वाले मकान, इसके अतिरिक्त झाँसी शहर के विभिन्न स्थलों बुन्देलखण्ड कॉलेज,
बिपिन बिहारी इण्टर कॉलेज, मेडिकल कॉलेज आदि का उल्लेख है। उपन्यास में बुन्देलखण्ड
के लोक-गीत, बोली, रीति-रिवाजों आदि भी वर्णित हैं।
इदन्नमम
(2009)
इदन्नमम में बुन्देलखण्ड के श्यामली
और सोनपुरा गाँव और उनसे जुड़े विभिन्न क्षेत्रों के मध्यवर्गीय जनजीवन की कहानी है।
राजेन्द्र यादव उपन्यास के संदर्भ में लिखते हैं,’हिन्दी कथा-रचनाओं की सुसंस्कृत सटीक
बेरंगी भाषा के बीच गाँव की इस कहानी को मैत्रेयी ने लोक-कथाओं के स्वाभाविक ढंग से
लिख दिया है, मानो मन्दा और उसके आसपास के लोग खुद अपनी बात कह रहे हों-अपनी भाषा और
लहजे में, बुन्देलखण्डी लयात्मकता के साथ…अपने आसपास घरघराते क्रेशरों और ट्रैक्टरों
के बीच।‘ मैत्रेयी पुष्पा ने उपन्यास की कहानी को मुख्य पात्र मन्दाकिनी
के आसपास केन्द्रित करते हुए बुन्देलखण्ड का समग्रता से चित्रण किया है।
उन्होंने बुन्देलखण्ड में क्रशर बनने से वहाँ
के लोगों को होने वाली परेशानियों का उल्लेख किया है। उनमें काम करने वाली जनजातियों
के शोषण पर भी उनकी दृष्टि गई है। ग्रामीण जीवन के सभी पहलू, साधारण जनजीवन की मानसिकता,
राजनीति, रीतिरिवाज, लोक-गीत आदि इदन्नमम में
चित्रित हैं। बुन्देलखण्ड के मन्दिर,आदिवासी, बीहड़, नदियाँ, पहाड़, गाँव के छोटे-छोटे
घर आदि सभी ने इस उपन्यास में स्थान पाया है।
बेतवा, पहूँच, चम्बल, सोन नदियाँ, चम्बल के
बीहड़ के ऊँचे-नीचे ढूह, वहाँ के पेड़-वनस्पतियाँ, जंगल, पहाड़ियाँ, सरकारी अस्पताल की
स्थिति, गाँव के छोटे-छोटे घर, खेतों की जगह बाँध की जगमगहाट के पीछे छिपा दर्द, क्रशर
बन जाने पर धूल उड़ाते हुए अपने ही गाँव को वृद्ध लोगों द्वारा पहचान ना पाने की पीड़ा
आदि बुन्देलखण्ड का विस्तार से परिचय देते हैं।
इदन्नमम के विषय में गोपाल राय लिखते हैं,
‘इस उपन्यास में एक विजन है जो लेखिका के बुन्देलखण्डी जीवन के प्रामाणिक और अन्तरंग
अनुभव, पहाड़ी अंचल की धरती और बीहड़ पहाड़ के जीवन के सामाजिक यथार्थ तथा गहरी मानवीय
संवेदना से सम्पन्न है’।
वृन्दावनलाल
वर्मा और मैत्रेयी पुष्पा के साहित्य में बुन्देलखण्ड के चित्रण में भिन्नता
वृन्दावन्लाल वर्मा और मैत्रेयी पुष्पा के समयकाल
और परिवेश में अन्तर होने के कारण, दोनों साहित्यकारों के चित्रण में
बुन्देलखण्ड की पृष्ठभूमि में भिन्नता देखने को मिलती है।
दोनों साहित्यकारों के समयकाल और परिवेश के अध्ययन से उनके दृष्टिकोंण का पता चलता है। जिसके
आधार पर उनके साहित्य की समीक्षा द्वारा यह ज्ञात होता है कि दोनों साहित्यकारों के
जीवन में मूलभूत अन्तर के कारण, उनके द्वारा एक ही क्षेत्र के किये गये चित्रण में
भी भिन्नता देखने को मिलती है। उसी के अनुसार
जनजीवन, संस्कृति, सामाजिक, राजनीतिक परिवेश एवं भौगोलिकता आदि विभिन्न विषयों
के चित्रण में अंतर दिखाई देता है।
साहित्य में बुन्देलखण्ड के संस्कृति-संग्रह
की दृष्टि से वृन्दावनलाल वर्मा के उपन्यासों के माध्यम से विशेषकर वहाँ के ऐतिहासिक
स्थलों के चित्रण के साथ वहाँ के राजा और प्रजा के बीच प्रचलित व्यवहार, वहाँ के जनजीवन
की संस्कृति, बोली, भूगोल, त्यौहार, रीति-रिवाजों का संग्रह किया जा सकता है। उपन्यास
में लिखे गए पात्रो के नामों में प्रामाणिकता के उन्होंने अनेक उदाहरण दिए हैं। परन्तु
उन्होंने रानी लक्ष्मीबाई के पक्ष को एक भक्तिमय आस्था होने के कारण और प्राप्त साक्ष्यों
को ना मानते हुए अपने मत के अनुसार लिखा है। उत्तर प्रदेश के झाँसी में स्थित किले
के विभिन्न हिस्सों, किले के अनेक फाटकों, उसके अन्दर मन्दिर, किले में स्थित तोपों,
जिसमें कड़क बिजली मुख्य है, आदि का उन्होंने विस्तार से चित्रण किया है। किस प्रकार
शहर चारों ओर से एक दीवार से घिरा हुआ है, इसका उल्लेख किया है। ओरछा, जार पहाड़, किले
के बाहर का तत्कालीन शहरी जीवन आदि का वृन्दावनलाल वर्मा ने अत्यन्त सजीव चित्रण किया
है।
मैत्रेयी पुष्पा का जुड़ाव बुन्देलखण्ड के ग्रामीण
परिवेश से अधिक दिखाई देता है। उनके उपन्यासों में वहाँ के गाँवों के जनजीवन की व्यथा,
पीड़ा, खुशी आदि में उनकी संवेदना मिलती है। बुन्देलखण्ड के शहरी परिवेश के साथ गाँवों
की सामाजिक-राजनीतिक मानसिकता, संस्कृति रीति-रिवाज, बोली का वर्णन है। साथ ही बुन्देलखण्ड
के भूगोल जिसमें वहाँ की नदियाँ, पहाड़, गाँव, बीहड़ आदि का परिचय मिलता है। उन्होंने
अपने उपन्यासों में बुन्देलखण्डी बोली का बहुलता से प्रयोग किया है जो किसी प्रदेश
की संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग है।
इस प्रकार वृन्दवनलाल वर्मा के उपन्यास बुन्देलखण्ड
के ऐतिहासिक संरक्षण की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, जिनमें इतिहास के साथ तत्कालीन संस्कृति,
भौगोलिक,सामाजिक, राजनीतिक परिवेश,जनजीवन बोली आदि का संग्रह होता है। वहीं मैत्रेयी
पुष्पा के उपन्यास आधुनिक बुन्देलखण्ड के ग्रामीण तथा शहरी, सामाजिक, राजनीतिक, भौगोलिक
परिवेश, वहाँ के जनजीवन, संस्कृति, बोली आदि के संरक्षण में अहम योगदान देते हैं।
जहाँ वृंदावनलाल वर्मा ने बुंदेलखंड पर आज़ादी
के समय में ऐतिहासिक साहित्य लिखा वहीं मैत्रेयी पुष्पा ने अपनी कृतियों में बुंदेलखंड
का 90 के दशक के उपरांत एक
यथार्थवादी दृष्टिकोंण से चित्रण किया। इन दोनों साहित्यकारों के लेखन के विश्लेषण
द्वारा हमें हिंदी साहित्य में बुंदेलखंड के चित्रण की यात्रा की एक अर्थपूर्ण झलक
देखने को मिलती है।
इस लेख का एक संस्करण सहपीडिया में प्रकाशित हो चुका है।
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