नवम्बर की धीरे-धीरे बढ़ती हुई सर्दी में सुबह के समय छत पर टहलते हुए मैं देख रही थी कि धुँधले आसमान में चार-पाँच दिन से एक लाल रंग की पतंग रोज उड़ती है जो मेरा ध्यान आकर्षित करती थी। मैं सोचती थी कि कैसे स्वच्छंदता से उड़ती हुई एक अनजानी पतंग हर एक से रिश्ता बना लेती है। प्रतिदिन शान्त आसमान में पक्षियों के बीच उड़ती पतंग अपने में मगन रहती थी। कई दिन उस पतंग के उड़ते रहने के बाद एक दिन एकाएक दूसरी हरे रंग की पतंग भी उड़ने लगी। इसके बाद दोनों पतंगों में प्रतिस्पर्धा शुरू हुई। पहले से उड़ती शान्त पतंग चंचलता से झूमने लगी और ऊँचे आसमान में पहुँच गई। दूसरी पतंग धीरे-धीरे ऊपर बढ़ी और लाल पतंग से पेंच लड़ने लगी। तभी लाल पतंग ने उसे काट दिया। दूसरे दिन फिर वही हरी पतंग आई लेकिन पहले से उड़ती निर्भीक लाल पतंग का मुकाबला करने का साहस न कर सकी और नीचे उतर गई। तीसरे दिन हरी पतंग फिर चुपचाप से आई और पहले से पेंगें बढ़ाती लाल पतंग ने फिर उसका पीछा किया। थोड़ी देर दोनों पतंगों ने पेंच लड़ा लेकिन फिर हरी पतंग बीच में ही नीचे उतर गई। मैं बार-बार टहलना छोड़कर पतंगों की अठखेलियाँ देख रही थी।
पतंगों की इन कलाबाजियों
को सुबह-सुबह अकेले शान्ति से देखते हुए वह समय याद आ गया जब मैं विवाह से पहले झाँसी में रहती थी। यह
सत्तर के दशक की बात है। घर के पास हॉकी के प्रसिद्ध खिलाड़ी ध्यानचंद के नाम से
हीरोज क्रीड़ास्थल है। वहाँ प्रत्येक साल पतंगों की प्रतियोगिता होती थी जिसे
डमडोली कहा जाता था। उसमें झाँसी के दूर-दूर के प्रतिभागी भाग लेते थे। अपनी-अपनी
पतंगों के साथ प्रतियोगी अपने समूहों में खड़े हो जाते थे। इस प्रतियोगिता में मेरे
पिताजी सांकेतिक पतंग उड़ाकर उद्घाटन करते थे। ये बात और है कि घर में सबको पतंग
उड़ाने के लिए वह डाँटते थे।
दूर-दूर तक फैला आसमान, घर के सीधे हाथ पर उत्तर दिशा को घेरे सुन्दर रमणीक पहाड़ी, पीछे पूरब में दूर दिखती रेल की
पटरियाँ, चारों ओर फैला प्रकृति का
खुलापन, जहाँ सूर्योदय और सूर्यास्त भी अपनी सम्पूर्ण सुंदरता से दिखता हो, ऐसे खुले वातावरण में डमडोली का
आयोजन होता था। चारों ओर उड़ती पतंगें बिना
किसी रुकावट के दिखाई देती थीं। हर तरफ कटी पतंग और डोर लूटने के लिए बच्चे और लड़के
तैयार दिखते थे। एक हलचल का माहौल बन जाता था।
लाउडस्पीकर पर प्रतिभागियों के नामों की घोषणा होती थी। दूर-दूर
के क्षेत्र तक ये हिदायत दी जाती थी कि प्रतिभागियों की पतंगों के अतिरिक्त आसमान
में किसी की पतंग नहीं होनी चाहिए। आसमान पहले से ही रंग-बिरंगी पतंगों
से भर जाता था। प्रतियोगिता शुरू होने की घोषणा होते ही केवल प्रतिभागियों की दो
पतंगें रह जातीं थीं। इसके बाद दोनों प्रतिभागी पेंच लड़ाते थे। पतंगें दूर-दूर
तक उड़ाती जाती थीं, इतनी दूर कि छोटी -छोटी दिखने लगती थीं और जब एक पतंग कट जाती थी उसे लूटने
के लिए पहाड़ी पर चढ़ते हुए, रेल की पटरियों की तरफ और इधर-उधर भागते हुए बच्चे दिखते थे। एक अलग ही नज़ारा होता
था। एक-एक प्रतिभागी को
लगातार तीन पतंगें काटनी होती थीं। जो प्रतिभागी तीन पतंगें काट लेते थे, उनके बीच
में प्रतिस्पर्धा चलती थी। अंत में विजयी प्रतिभागी को पुरस्कार दिया जाता था।
प्रतियोगिता शुरु होने से पहले हम भाई-बहन छत पर पहुँच जाते थे। वहाँ कागज़ का टुकड़ा उड़ाकर देखते थे कि हवा का रुख किधर है, यदि पतंगें हमारी छत से होकर जाती थीं तो हमारी खुशी का ठिकाना नहीं रहता था। कटी पतंग और डोर को लूटने के लिए हम तैयार रहते थे। जब पतंग कटती थी तो पूरी डोर छत पर गिर जाती थी और हम लोग उस डोर को खींचकर इकट्ठा करते थे जिसका एक अलग ही सुख होता था।
- अमिता चतुर्वेदी
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