‘गुड़म्बा’ मशहूर
लेखक ज़ावेद सिद्दीकी द्व्रारा लिखित तथा सलीम आरिफ़ द्वारा निर्देशित एक संवेदनशील एकल
नाटक, 27 जुलाई को सूरसदन प्रेक्षागृह में अभिनीत किया गया। नाटक के प्रारम्भ में सहजता
से अभिमुख होती हुई, इस एकल नाटक की कलाकार लुबना सलीम ने क्षण भर में दर्शकों से आत्मीयता
स्थापित कर ली, फिर एक पात्र में अनेक पात्रों को जीती हुई, कभी अपने जीवन के पुराने
समय और कभी वर्तमान में दर्शकों को पहुँचाती रही। नाटक की मुख्य और एकमात्र पात्रा
अमीना(लुबना सलीम) अपने पति, बेटे और बहू के साथ रहती है। एक औरत की समाज में निम्नतर
स्थिति इस नाटक के माध्यम से स्पष्ट होती है, जिसको उसका पिता, पति और पति के घर वाले
अपने आधीन रखते हैं।
नाटक का प्रमुख
विषय है कि भारतीय समाज में एक लड़की का विवाह करना ही उसके माता-पिता का उद्देश्य होता
है और शादी के बाद उसका जीवन किस तरह बीतता है इससे उनका कोई सरोकार नहीं रह जाता है।
लड़की की शादी किससे और कब होनी है इसका निर्णय उसके घर वालों का अधिकार होता है, जिससे सहमत न होने पर वह घर वालों से कोई
बहस नहीं कर सकती। एक संजीदा विषय को सधे हुए तरीके से हास्य और समझदारी के साथ प्रस्तुत
करते हुए लुबना सलीम ने दर्शकों से तादात्म्य स्थापित कर लिया। कब उन्होंने कहानी में
लिखित अपने पात्र के जीवन के एक-एक गंभीर पहलू से परिचित करा दिया पता ही नहीं चला।
18 वर्ष में पिता द्वारा अमीना की शादी तय होना, विरोध करने पर पिता का न सुनना, लड़का
पसंद आने पर बचपने में उससे शादी के लिए तैयार हो जाना और बाद में वर्तमान में आते
हुए एक बेटे-बहू और पति के साथ जीवन जीते हुए अमीना किस-किस दौर से गुज़रती है इस तरह
अस्सी के दशक की कहानी को लुबना सलीम ने अनेक पात्रों को अपने बहुमुखी और उत्कृष्ट
अभिनय से जीकर, दर्शकों को कहानी में गहराई से डूबने पर विवश कर दिया।
विवाह के बाद
एक पारंपरिक परिवेश में रहने को विवश अमीना जब अंतत: एक माँ और फिर सास बनती है तो
बेटे-बहु के आधुनिक परिवेश के साथ सामंजस्य बिठाने का जो सिलसिला 18 साल की उम्र से
शुरू हुआ था फिर चल पड़ता है। अमीना के जीवन के इस लघु-परिचय द्वारा पितृसत्तात्मक समाज
के दवाब में घिरी स्त्री के जीवन की विवशता की सच्चाई को ‘गुड़म्बा’ नाटक के मंचन द्वारा
प्रस्तुत किया गया।
अमिता चतुर्वेदी
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