प्रस्तावना: ‘हिन्दी के चर्चित उपन्यासकार’ मिश्र की उपन्यासों और उपन्यासकारों की आलोचना का एक ही पुस्तक में समेटने का बृहद प्रयास है। परन्तु इसमें उनकी पूर्वाग्रहग्रस्त सोच अनेक जगह दृष्टिगत होती है। इस लेख में इन्हीं कुछ लक्षणों को इंगित करने का प्रयास किया गया है।
Sunday, November 22, 2015
Thursday, October 8, 2015
व्रत, त्यौहार और रीति-रिवाज: समाज के शिकंजे
भारतीय समाज में व्रत-त्योहार, रीति-रिवाज, मर्यादा, संस्कार आदि सभी स्त्रियों के लिये नियत किये गये हैं और सभी उन पर शिकंजा कसने के
हथियार हैं। इनके जाल में उलझकर वो शनैः-शनैः अपनी समस्त स्वतंत्रता खो देती हैं। विवाह होते
ही पहले दसवें दिन, फिर एक महिना, उसके बाद साल पूरा होने पर कुछ-कुछ छिरकवा
कर लड़की को बदली हुई जीवन-शैली से अभ्यस्त कराया जाता है। एक महीने तक नई बहू को लाल या गुलाबी साड़ी में चौक पर बैठाकर ससुराल की कोई रिश्तेदार एक पारम्परिक गाना गाती है, जिसका कुछ भी मतलब समझे बिना वह सब कुछ एक कठपुतली की तरह करती जाती हैं। इसके बाद दिनचर्या में उसके बोलने-चालने, हँसने, चलने,
उठने-बैठने, खाने-पीने इत्यादि सभी गतिविधियों को नियन्त्रित किया जाता है। स्त्रियों को अपनी इच्छा से कपड़े पहनने की स्वतंत्रता
नहीं होती। बहुत से परिवारों में उनको पारम्परिक साड़ी पहनने के लिये बाध्य किया जाता
है। इन सबसे धीरे-धीरे उनकी सभी रुचियाँ और प्रतिभा स्वतः ही अलोप होती
जाती हैं। एक बँधे-बँधाए ढर्रे पर औरतों का जीवन चलता रहता है। वो भी इन सब की
इतनी आदी हो जाती हैं कि उन्हें फिर से कुछ करने के लिये उद्द्यत करना बहुत ही
कठिन हो जाता है। किसी समय में आदमी भी धोती कुर्ता पहनते थे।आज सभी पेंट-शर्ट पहनते
हैं, इसकी वजह पुरूष घर से बाहर जाकर पैसा कमाना बताते हैं। गौर किया जाये तो पहली स्वतंत्रता
बाहर निकल कर पैसा कमाने से ही मिलती है जो पुरूषों को मिलती है। फिर इसी क्रम से जुड़ते
हुए धीरे-धीरे सभी क्षेत्र में उनकी स्वतंत्रता का दायरा बढ़ता जाता
है।
शादी के बाद
औरतों को बाहर आर्थिक रूप से स्वावलम्बी बनने के लिये घर से निकलने नहीं दिया जाता। हाथ में धन रहने के कारण आदमी अपनी मर्जी के काम अधिकार पूर्वक करते हैं। औरतों को सभी कामों के लिये उन पर निर्भर रहना पड़ता है। उनको घर के काम करना, बच्चों और बड़ों की देखभाल करने का उत्तरदायित्व दिया जाता
है। इस तरह स्त्रियों की आजादी का हनन होता जाता है। घर में दिन-भर काम करते
हुए भी वे बेरोजगारों की श्रेणी में गिनी जाती हैं। उनके काम को कभी महत्व नहीं दिया
जाता। आज भी अधिकांश लड़कियों की प्राथमिकता घर सँभालना ही हैं।
वो घर वालों की इसी परम्परावादी सोच को ही महत्व देती हैं। उनको अपनी इच्छा से ना चलने देकर उन्हें अपनी इच्छानुसार चलाने का पुरूषों का यह
एक बहुत अच्छा तरीका है ।
इसके अतिरिक्त मेहमान घरों
में अन्य सदस्यों से मिलने और बातें करने आते हैं परन्तु औरत से केवल खाने- पीने द्वारा
आवभगत और घर की साफ़-सफ़ाई की ही उम्मीद की जाती है। घर में उसकी योग्यता उसके
द्वारा प्रस्तुत किये गये खाने, नाश्ते और घर की सफ़ाई से आँकी जाती है। उसमें
कहीं कोई चूक नहीं होनी चाहिये। नाश्ता गर्म बानाया गया हो और बाजार से ना मँगाया गया
हो। खाने में अनेक प्रकार की चीजें हों तभी ग्रहणी योग्य मानी जाती है। उसने अपने जीवन
में अन्य क्षेत्रों में अभी तक क्या हासिल किया है, इस बात से
किसी को कोई मतलब नहीं होता। पुरूष वर्ग तो केवल बातें करके ही वाह-वाही लूट
लेता है और उसका अतिथि-सत्कार का दायित्व पूरा हो जाता है। औरत को एक पल के लिये भी
बैठने का समय नहीं मिलता।
नियमित दिनचर्या ही उन्हें
चैन से नहीं बैठने देती, वहीं व्रत-त्यौहार और तरह-तरह के रीति-रिवाज उनको
चक्रवात की भाँति घुमा देते हैं। पहले नौ–दुर्गा के नौ व्रत या पड़वा और अष्टमी के व्रत से हिन्दी का साल प्रारम्भ
होता है। स्त्रियों
की भूखे रहकर साल की शुरुआत होती है। अधिकतर व्रत स्त्रियाँ पति या अपनी संतान (लड़कों) के लिये रखती हैं। एकादशी, पूर्णिमा
हर महिने रखने वाले व्रत, फिर हर हफ़्ते होने वाले व्रत अलग चलते रहते हैं। अधिकतर व्रत पति या लड़कों की आयु, धन–सम्पत्ति
अथवा स्वास्थ्य से जुड़े रहते हैं। जिन स्त्रियों का समाज में कोई प्रतिष्ठित स्थान नहीं
है।उनमें व्रत के मामले में इतनी शक्ति आ
जाती है कि ऐसा लगता है कि उनके व्रतों से ही पुरूष-समाज का जीवन चलता है।
कुछ व्रत इच्छा से रखे जाते हैं तो कुछ आवश्यक कर दिये जाते हैं। आवश्यक व्रतों को
ना रखने की सोचना ही महिलाओं को समाज के कारण भयभीत कर देता है। जन्माष्टमी के व्रत
में कृष्ण भगवान के जन्म लेने पर व्रत रखा जाता है। जबकि किसी के पैदा होने पर व्रत
रखने का कोई औचित्य नहीं है। ये व्रत यदि घर के सभी सदस्य रखते हैं तो एक उत्सव सा
हो जाता है। खास तरह का खाना औरतों का काम बढ़ाता है। हरतालिका का अत्यन्त कठिन होता है। इसके आने से पहले से औरतों में एक घबराहट होने
लगती है । वो ये मनाती हैं कि किसी तरह से ये व्रत अच्छी तरह निकल जाये। भूखे प्यासे
रहने के कारण शाम आते-आते अधिकांश औरतें सिर-दर्द और कमजोरी
के कारण बिस्तर पर पड़ जाती हैं। इस बीच वो घर के रोज के बँधे कार्यों के लिये उठती
हैं क्योंकि वो उन्हें ही करने होते हैं। इस व्रत के हो जाने पर वो शायद साल भर के
लिये राहत की साँस लेती होंगी। इसीलिये शायद इस दिन बहुत सी स्त्रियाँ एकत्रित होती हैं कि एक दूसरे पर निगरानी रख सकें कि व्रत रखा है या नहीं। कुछ स्त्रियाँ करवा चौथ का व्रत भी इसी तरह रखती हैं।
त्यौहारों की बात करें तो होली
एक मस्ती का त्यौहार है पर होली के बाद दौज पर भी स्त्रियों को आने वालों की आवभगत
के लिये स्पेशल खाना बना होता है अर्थात घर में कुछ भी हो औरतों को रोज से अधिक खाना
बनाना ही होता है, जो उनकी थकान का कारण बनता है। इसी प्रकार दिवाली की दौज
पर होता है। कुछ स्त्रियाँ स्वयं पर गर्व करने का कारण समझ कर बढ़-बढ़ कर काम
करती हैं क्योंकि उनके जीवन में इसके सिवा करने को कुछ नहीं रहता। व्रत हो तो भूखे रहना पड़ता है और त्यौहार, रीति–रिवाजों में
खाना बनाना पड़ता है। रक्षाबन्धन पर तो राखी बाँधनी हो या नहीं पर औरतें पूरे दिन ही काम
में लगी रहती हैं। हर त्यौहार पर कुछ खास खाने की चीज आवश्यक कर दी गई है जिसके बनाये
बिना त्यौहार माना ही नहीं जाता। होली पर गुझियाँ, जन्माष्टमी
पर पाग ,सकट चौथ पर तिल के लड्डू, गणेश चौथ
पर बेसन के लड्डू, रक्षाबन्धन पर सिवईं की खीर अर्थात कैसा भी अवसर हो औरतों
का ध्यान खाना बनाने में ही लगा रहना चाहिये। प्रत्येक अवसर पर घर को साफ़ रखना भी औरत
का ही कर्तव्य है। घर में रहते सब हैं पर औरत ही घर को व्यवस्थित करने में लगी रहती
है क्योंकि अतिथि उसकी खातिरदारी को परखने के साथ घर की साज-सज्जा के
आधार पर भी स्त्रियों को आँकते हैं।
व्रत त्यौहारों के अतिरिक्त महिलाओं को श्राद्ध पक्ष या पितृ पक्ष के समय साँस लेने का समय नहीं मिलता। पितृ पक्ष में लड़कों और आदमियों के पितरों का श्राद्ध होता है। जिसमें ब्राम्हण या ब्राम्हणी को खाना खिलाते हैं। इनकी संख्या एक या कितनी भी हो सकती है। साथ में पुरूष अपने रिश्तेदारों को भी खाने पर बुलाते हैं। खाने वालों की संख्या बढ़ जाती है पर खाना बनाती औरत ही है। पन्द्रह दिन में पुरूष के परिवार के कितने भी श्राद्ध हो सकते हैं। वैसे किसी की मृत्यु पर तेरहवीं, बरसी या चौबरसी पर तो आराम से हलवाई खाना बनाता है पर श्राद्ध में बाजार से कुछ मँगाने में आपत्ति जताई जाती है। इनमें तो ग्रहणी के बनाने से ही निष्ठा दिखती है। ऐसे में कई औरतें बीमार होने पर भी गिरते-पड़ते श्राद्ध का खाना बनाती ही हैं। पुरूष इसमें साथ देते नहीं हैं क्योंकि उन्होंने ये काम तो औरत के लिये ही नियत किये हैं।
व्रत त्यौहारों के अतिरिक्त महिलाओं को श्राद्ध पक्ष या पितृ पक्ष के समय साँस लेने का समय नहीं मिलता। पितृ पक्ष में लड़कों और आदमियों के पितरों का श्राद्ध होता है। जिसमें ब्राम्हण या ब्राम्हणी को खाना खिलाते हैं। इनकी संख्या एक या कितनी भी हो सकती है। साथ में पुरूष अपने रिश्तेदारों को भी खाने पर बुलाते हैं। खाने वालों की संख्या बढ़ जाती है पर खाना बनाती औरत ही है। पन्द्रह दिन में पुरूष के परिवार के कितने भी श्राद्ध हो सकते हैं। वैसे किसी की मृत्यु पर तेरहवीं, बरसी या चौबरसी पर तो आराम से हलवाई खाना बनाता है पर श्राद्ध में बाजार से कुछ मँगाने में आपत्ति जताई जाती है। इनमें तो ग्रहणी के बनाने से ही निष्ठा दिखती है। ऐसे में कई औरतें बीमार होने पर भी गिरते-पड़ते श्राद्ध का खाना बनाती ही हैं। पुरूष इसमें साथ देते नहीं हैं क्योंकि उन्होंने ये काम तो औरत के लिये ही नियत किये हैं।
स्त्रियों के जीवन का यही सच
है। इसी सच के साथ जीती हुई वो अपना जीवन खत्म कर देती हैं। आवश्यकता है कि इस सच को
बदला जाये। स्त्रियाँ अपनी खोई हुई रुचियों और प्रतिभा को पुनः जगाएँ। घर को ही अपना
जीवन-क्षेत्र ना मानें। इसके अतिरिक्त भी दुनिया में बहुत कुछ है। कुछ करने के
लिये घर से बाहर कदम निकालने की हिम्मत करनी चाहिये। कोई भी काम किसी के लिये असम्भव नहीं होता। घर की
चारदीवारी में रहते –रहते स्त्रियाँ इतना आत्मविश्वास खो देती हैं कि अचानक आवश्यकता
पड़ने पर वो स्वयं की भी मदद नहीं कर पातीं। आर्थिक स्वतन्त्रता के ना होने से ही स्त्रियाँ
समाज के बनाये हुए जाल में फ़ँसी रह जाती हैं। जिससे वो
जीवन भर नहीं निकल पातीं हैं। स्त्रियाँ कोई एक रास्ता चुन कर उससे प्रारम्भ करें।
अनेक दूसरे रास्ते स्वयं ही जुड़ते जाते हैं और जीवन की शुष्कता समाप्त होकर उसमें
ताजगी का आभास होता है। कुछ भी शुरू करने के लिये कभी देर नहीं होती।
अमिता चतुर्वेदी
Tuesday, June 23, 2015
'अपने अपने अजनबी' और वैयक्तिक यथार्थबोध
प्रस्तावना: प्रस्तुत लेख अज्ञेय के उपन्यास 'अपने अपने अजनबी' के मूल्यांकन द्वारा हिन्दी साहित्य में वैयक्तिक यथार्थबोध के सिद्धांत की यथार्थवाद के परिपेक्ष्य में संभावनाएं खोजने का प्रयास करता है। यह लेख मेरे हिंदी साहित्य में एम. फिल. की उपाधि के लिए प्रस्तुत किए गए लघु-शोध प्रबंध पर आधारित रचना है।
Friday, May 1, 2015
संघर्ष और चुनौती.
कभी-कभी जब शहर के कोलाहल, आलीशान इमारतों, भागती सड़कों से दूर खुले वातावरण में निकलती हूँ तो एक तरफ़ छोटे-छोटे टूटे-फ़ूटे, गरीबी ओढ़े हुए घर और दूसरी ओर नई कॉलोनियों एपार्टमेन्ट्स का रूप लेते खेत और मैदान दिखाई देते हैं। इन घरों में सुबह-सुबह से ही काम करती औरतें और फिर मजदूरी करने जाते हुए स्त्री और पुरुष दोनों दिखाई देते हैं जिनको पूरे दिन मेहनत करके अपना जीवन यापन करना पडता है। उनके बच्चे दिन भर निरर्थक भागते रहते हैं जिनका कोई सुनहरा भविष्य नहीं होता। यद्यपि गाँवों में बहुत से बच्चे पढ़ने जाते हैं परन्तु उनका ध्येय अधिक से अधिक सातवीं या आठवीं कक्षा तक पढ़ने का होता है। उसके बाद लड़कों को किसी छोटे-मोटे काम पर लगा दिया जाता है और और उनके माँ-बाप को लड़कियों के विवाह की चिन्ता सताने लगती है। शहरों में धन के अभाव में स्त्रियों को दूसरों के घर बर्तन माँजने, सफ़ाई
करने या खाना बनाने के लिये जाना पड़ता है।
ऐसे ही एक गरीब परिवार की औरत मेरे सम्पर्क में आई जो घरों में बर्तन माँजने और
झाड़ू पौंछा करने का काम करती है। उसके पति की कुछ समय नौकरी रही परंतु थोड़े समय पश्चात्
छूट गई। उसके बाद भी कई बार नौकरी लग कर छूट गई। औरत का परिवार असहाय अवस्था में आ
गया। उसके बच्चों की पढ़ाई का समय आया। माँ का बहुत मन था कि बच्चे शिक्षित हों पर पिता
का मानना था कि बच्चों की पढ़ाई का कोई औचित्य नहीं है। पति के विरोध के बाद भी उसने
स्वयं काम करने का फ़ैसला लिया। यह उसके लिये नया और साहसिक कदम था क्योंकि इसके पहले
बहुत कम ही अकेले घर से बाहर निकली थी। वह घरों में जाकर काम करने लगी। उसे अपने रिश्तेदारों
और पड़ौसियों से छिपकर जाना पड़ता था क्योंकि घर में रहने वाली महिला जब बाहर कदम रखती
है तो उसका बहुत तीव्रता से विरोध होता है। विरोध होने के बाद भी काम शुरु करके उसने
अपनी कमाई से बच्चों को पढ़ाना प्रारम्भ किया।
सबसे बड़ा लड़का आठवीं कक्षा तक पढ़ा, पर फिर उसका पढ़ने में मन लगना बन्द हो गया। लेकिन इसके बाद उसके बेटे की एक चेन
फ़ैक्ट्री में नौकरी लग गई। अब वह स्त्री और उसका बेटा मिलकर घर चलाने लगे। वह अपनी
बेटियों को पढ़ाने में तत्पर हो गई। परन्तु अभी उस महिला के साहस की और परीक्षा होनी
थी। एक दिन बेटा साइकिल से काम पर जा रहा था, तभी एक ट्रक की चपेट में आकर उसकी मृत्यु हो गई। इतना
बड़ा आघात लगने से वह एकदम टूट गई । उसे सरकार से मुआवजे की उम्मीद थी जो लोगों ने उसे
बँधाई थी पर वो मुआवजा भी बहुत कोशिश करने पर भी उसे नहीं मिला। कुछ समय तो उसका प्रत्येक
कार्य से मन उखड़ गया परन्तु अपने बच्चों का भविष्य बनाने की लगन में उसने फिर से काम
करना शुरू किया। बच्चों की पढ़ाई निरन्तर चलती रही। बड़ी बेटी का मन भी अपने भाई जितना
ही लगा, लेकिन जीवन की आवश्यकतानुसार
उसकी पढ़ाई हो गई। दूसरी बेटी भी स्कूल जाती
थी। उसका पढ़ने में मन लगा। आज वो बीए कर रही है।
एक सुविधाविहीन स्त्री ने अपने बल पर सभी बच्चों को शिक्षा दिलवाई। उसके इस प्रयत्न
में पूरी सच्चाई और एकाग्रता देख कर कुछ लोग प्रभावित हुए और उन्होंने उसकी सहायता
भी की परन्तु उस महिला का स्वयं का अटल निश्चय और लगन एक उदाहरण प्रस्तुत करता है। इस महिला की हिम्मत
और लगन मुझे बहुत प्रेरणा देती थी। अधिकांश सुविधा सम्पन्न महिलाएँ जीवन भर घर में
बैठी रहती हैं और कुछ ना कर पाने के लिये परिस्थितियों का रोना रोती रहती हैं जबकि
सच तो यह है कि कुछ करने की इच्छा और हिम्मत हो तो कोई भी काम असम्भव नहीं है। इस महिला
ने भी समाज और पति का विरोध झेला। उसको भी सब कुछ सरलता से नहीं मिला और अभी भी वह
संघर्ष में लगी हुई है।
-अमिता चतुर्वेदी
Thursday, March 26, 2015
शिवानी का अनमोल साहित्य।
पढ़ने का शौक रखने वाले कोई भी कहानी, उपन्यास, या पत्रिका बिना पढ़े नही रह पाते हैं। वे हर चीज को इतना तल्लीन होकर पढ़ते हैं कि उन्हें समय की सुध ही नहीं रहती। साठ- सत्तर के दशक के पाठक इन्द्रजाल कॉमिक्स, चन्दामामा, नन्दन, साप्ताहिक हिन्दुस्तान आदि पढ़ कर बड़े हुए अनेक लोगों ने इन्हें ही पढ़ते–पढ़ते युवावस्था में प्रवेश किया और जैसे-जैसे उनके पढ़ने का दायरा बढ़ा। बेहतर उपन्यासों के साथ ही मनोहर कहानियाँ ,सत्यकथाएँ जैसी सनसनीखेज पत्रिकाएँ उनके सामने आती थीं। कुछ पाठकों को इनमें से अच्छा साहित्य पढ़ने के लिया प्रेरित किया जाता है। ऐसे पाठकों को एक सुन्दर दिशा मिल जाती है जिस पर वे सदैव चलते जाते हैं। हिन्दी उपन्यासों में आचार्य चतुरसेन, रवीन्द्रनाथ टैगोर, बन्किम चन्द्र आदि द्वारा लिखे गये उपन्यास सदा ही लोकप्रिय रहे हैं। इन्ही नामों में अपनी अलग पहचान बनाई है लोकप्रिय लेखिका शिवानी ने, जिनकी रचनाओं ने पाठकों पर अमिट छाप छोड़ी है। शिवानी का नाम लेते ही कुमाऊँ की पहाड़ियों के दृश्य आँखों के सामने घूम जाते हैं। उनकी रचनाओं में उल्लेखनीय हैं ‘विषकन्या’, ‘शमशान चम्पा’, ‘कृष्णकली’, ‘भैरवी’, ‘चौदह फेरे’, ‘सुरंगमा’, आदि जो पाठकों के दिलों के करीब हैं। ‘सुरंगमा’ का वह धारावाहिक जो साप्ताहिक हिन्दुस्तान में छपा करता था, वह आज भी मेरे पास संग्रहित रखा हुआ है।
अपनी नायिका की सुन्दरता का वह इतना सजीव चित्रण करतीं थीं कि लगता था कि वह समक्ष आ खड़ी हुई है। कभी लगता था कि शायद कुमाऊँ की पहाड़ियों पर वह असीम सुन्दर नायिका अपनी माँ के बक्से से निकाली हुई साड़ी पहने असाधारण लगती हुई खड़ी हो। कहीं किसी घर में ढोलक की थाप से उत्सव का वर्णन होता है ,तो कही कोई तेज तर्रार जोशी ब्राह्मण आदेश देता फिरता है। परिवार की भरी भरकम ताई खाट पर बैठी हैं और नायिका का नायक उसे छिपकर देख रहा है। कभी नायिका का एक पुरानी हवेली में जाना और एक बुढिया के अट्टहास से उसका सहम जाना। ये सभी वर्णन हमारी आँखों के सामने सचित्र उभर आते हैं।
शिवानी की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। मन करता था कि कभी वह मिलें तो उनसे पूछूँ कि उनकी कहानियों के पात्र क्या सच में कहीं हैं। यद्यपि अपने अन्तिम काल में वह बहुत कम लिखने लगीं थीं। मै उनके उपन्यासों का इन्तजार करती थी, पर शायद तब तक उन्होंने लिखना बन्द कर दिया था। परन्तु उनके जितने भी उपन्यास और कहानी संग्रह हैं, वे हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं।
-अमिता चतुर्वेदी
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