Sunday, August 9, 2020

रांगेय राघव का रिपोर्ताज तूफानों के बीच- बंगाल के अकाल का एक संवेदनशील वर्णन




रांगेय राघव का लिखा रिपोर्ताज तूफानों के बीच  हिन्दी साहित्य की एक अमूल्य कृति है जिसको उन्होंने चार भागों में लिखा है- बाँध भाँगे दाओ, एक रात, मरेंगे साथ जिएंगे साथ  एवं अदम्य जीवन । यह रिपोर्ताज सन् 1942-44 के अन्तराल में बंगाल में पड़ने वाले भीषण अकाल की भयावहता का साक्षी है, जिसे पढ़कर वहाँ की विषम परिस्थितियों से उत्पन्न लेखक के अन्तर्मन की व्याकुलता प्रकट होती है। 

उस समय आगरा के प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा डॉ कुण्ठे के प्रतिनिधित्व में एक दल पूर्वी बंगाल भेजा गया था। रांगेय राघव 19 वर्ष की उम्र में एक रिपोर्टर के रूप में इस दल के साथ गए थे। इस रिपोर्ताज में अकाल की विकट परिस्थितियों से उपजे लेखक के युवा मन की संवेदना और प्राकृतिक सौन्दर्य का समन्वय प्रत्येक स्थल पर मिलता है जिसमें बंगाल की शान्त, सुरम्य  प्रकृति और वहाँ का दु:ख और कष्ट एकाकार हो जाते हैं। रिपोर्ताज की भूमिका में वह लिखते हैं, 

“बंगाल का अकाल मानवता के इतिहास का बहुत बड़ा कलंक है। शायद क्लियोपैट्रा भी धन के वैभव और साम्राज्य की लिप्सा में अपने गुलामों को इतना भीषण दुख नहीं दे सकी जितना आज एक साम्राज्य और अपने ही देश के पूँजीवाद ने बंगाल के करोड़ों आदमी, औरतों और बच्चों को भूखा मारकर दिया है।”

रांगेय राघव ने रिपोर्ताज में अकाल के कारण बंगाल के लोगों की दुःखद परिस्थितियों से पाठकों को अवगत कराया है। भुखमरी से आहत वहाँ के लोगों पर लिखा रिपोर्ताज लेखक की परिस्थितिजन्य संवेदनशीलता को अभिव्यक्त करता है। लोगों की दुखभरी व मार्मिक बातें और उनके प्रश्न उन्हें सोने नहीं देते थे। उन्होंने बंगाल के अकाल के तत्कालीन समाज पर राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पड़ने वाले विपरीत प्रभाव का आकलन किया है। साथ ही भुखमरी से अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए जनविहीन, नीरव गाँवों में शेष रह गये लोगों की भावनाओं और परिस्थिति से परिचय भी कराया है।

तूफानों के बीच  पढ़ने से अकालग्रस्त बंगाल के लोगों के जीवन की विभिन्न परिस्थितियों पर पड़ने वाले प्रभाव का आकलन किया जा सकता है।

तत्कालीन समाजिक परिस्थिति

बाँध भाँगे दाओ’ रिपोर्ताज  के प्रारम्भ में रांगेय राघव ने नदिया जिले के एक कस्बे, कुष्टिया पर अकाल प्रभावित भयावह स्थिति का वर्णन किया है। अकाल के समय में कुष्टिया गाँव में लोगों को खाना दुर्लभ था। परिवारों में असहायता के कारण अपराध बढ़ गए थे। अनेक पुरुष अपने परिवारों को उनके हाल पर छोड़ कर चले गए। भूख के कारण बच्चे मर गये। औरतों को पैसों के लिए अपने शरीर का सौदा करना पड़ा। लेखक को लगता है मानो वे औरतें उससे पूछ रही हैं कि, “क्या हमें मर जाना चाहिये था? ”

अकाल के कारण हुई बंगाल की दुर्दशा के बाँध भाँगे दाओ  रिपोर्ताज में लेखक की संवेदना व्यक्त होती है। वह लिखते हैं- “लोग घर में मरते थे। बाज़ार में मरते थे। राह में मरते थे। जैसे जीवन का अन्तिम ध्येय मुट्ठी भर अन्न के लिए तड़प-तड़पकर मर जाना ही था। बंगाल का सामाजिक जीवन कच्चे कगार पर खड़ा होकर काँप रहा था। और वही लोग जो अकाल के ग्रास बन रहे थे, मरने के बाद पथों पर भीषणता के पगचिन्ह बने सभ्यता पर, मानवता पर भयानक अट्टहास-सा कर उठते थे।”

लेकिन रांगेय राघव ने देखा था कि बंगाल के लोगों में इस संकट का सामना करने का साहस था जिसको उन्होंने अनेक स्थान पर इंगित किया है। एक युवक के संकल्प को उन्होंने उद्धृत किया है- “यह अकाल जो गुलामी है, जो एक भीषण आक्रमण है, उसे हमें आस्तीन के साँप की तरह  कुचलकर खत्म कर देना होगा। ”

बंगाल में उस समय फैल रही बीमारियों के बारे में रांगेय राघव ने विस्तार से लिखा है। मलेरिया, चेचक और चर्मरोग आदि बीमारियों से लोग मर रहे थे परन्तु प्रशासन की तरफ से कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा था। लोगों को सरकारी दवाईयाँ नहीं मिल रहीं थीं। इंजेक्शन लगने थे परन्तु फौज के आदमी  पैसे देने के बाद भी इलाज नहीं करते थे। बहुत लोग बिना इलाज के मर गए। चिकित्सक दल जब दवाईयाँ और इंजेक्शन लेकर पहुँचा तो बंगाल के निराशा में डूबे लोग आशान्वित हुए। आरम्भ में वहाँ के हताश लोग चिकित्सक दल से  टीका लगवाने के लिए तैयार नहीं होते थे क्योंकि उनके बहुत से लोग मर चुके थे। सबको यह शिकायत थी कि डॉक्टर पहले आ जाते तो इतने लोग नहीं मरते।

प्रकृति में प्रश्रय ढूँढता लेखक का युवा मन

एक रात  रिपोर्ताज में भी रांगेय राघव ने कुष्टिया का ही चित्रण किया है। उनके चित्रण में बंगाल के दु:ख के साथ अधिकांशतः प्रकृति-चित्रण का समन्वय मिलता है। कभी ऐसा लगता है जैसे बंगाल के दु:ख से व्यथित लेखक को प्राकृतिक सौन्दर्य और उसकी स्थिरता में आत्मिक शान्ति प्राप्त होती है और जब भी वह बंगाल के प्राकृतिक सौन्दर्य पर मुग्ध होता है तो प्रत्येक बार उसे प्रकृति में वेदना का आभास होने लगता है। जैसे कि बाँध भाँगे दाओ के इस चित्रण में देखा जा सकता है, “साँझ घिर चली थी। बादल झूम उठते थे जैसे लुढ़कने के अतिरिक्त और कोई काम ही न था। घास फरफरा रही थी। समस्त वातावरण में एक कल्लोल लहरा रहा था जैसे वेदना से भरे श्वास बंशी में गूँज उठते हैं।”

लेखक का मन बार-बार प्रकृति की ओर जाता है परन्तु बंगाल का दुख उसे प्रकृति में सुनाई देने लगता है,”ग्राम के सघन वृक्षों में अंधेरा छिपा बैठा है। धुंधली चाँदनी अपने पंख फैलाये  जैसे अनन्त आकाश में उड़ जाने के लिये तैयार बैठी है।” (एक रात) लेखक अंधेरे में चाँदनी रूपी पक्षी के उड़ने की कल्पना से कुछ अच्छा होने की संभावना ढूँढता है।

रांगेय राघव को प्रकृति उदास प्रतीत होती है, 

“और हरीपुर गाँव जो घनी छाया में ऊँघता-सा मचलता-सा धूप और छाया में अल्हड़-सा आज सूनसान पड़ा था, अपने आप पर लज्जित एक व्याकुल विधवा की आह-सा।” (एक रात ) दूर से बंगाल में हरियाली और ताल दिखने पर भी लेखक को वहाँ की प्रकृति में दु:ख का अनुभव होता है। बाँध भाँगे दाओ  रिपोर्ताज में कुष्टिया के संदर्भ में वह लिखते हैं “कितना-कितना विश्राम। कितनी-कितनी शान्ति, जीवन का अपनापन उस नीरवता में बार-बार जैसे सुबक रहा हो, भीख माँग रहा हो, जहाँ प्यार, प्यार रह कर भी दुराशा था, अलगाव था, हाहाकार था…”

“घर, वह शान्त घर चाँदनी में सो रहे थे लेकिन मानव को इतना अवकाश, इतना समय ही नहीं था कि वह भी पानी पर बहती चाँदी सोने की झिलमिल चादरों से आल्हादित होता।”(बाँध भाँगे दाओ ) लेखक बंगाल के दुख से बोझिल होकर प्राकृतिक सौन्दर्य में शान्ति ढूँढ़ने का प्रयास करता दिखाई देता है। बंगाल के सम्पूर्ण वातावरण में  उनको विरोधाभास दिखता है। कहीं प्रकृति की सुन्दरता में वेदना तो कहीं विद्यार्थियों की हँसी परन्तु आँखों में एक भय और उदासी और कहीं दीपक निश्शंक न होकर जलता हुआ।

राजनीतिक परिदृश्य और समाज में जागरूकता

रांगेय राघव ने अकाल के इस संकट के समय प्रशासन की स्वार्थपरता, लोगों की आवश्यकताओं के प्रति उदासीनता और अपने वाणिज्यकीय लाभ से प्रेरित राजनीति का भी उल्लेख किया है। वह लिखते हैं कि बंगाल की टैक्सटाइल मिल कोयले की कमी के कारण बन्द हो गई, जिसके कारण 3500 मजदूर बेकार हो गए। परन्तु सरकार ने इस बात की कुछ चिन्ता नहीं की।

बीमार लोगों के लिए जो सरकारी दवाखाना था, वहाँ न तो दवाई ठीक से थी और न मरीजों पर ठीक ध्यान दिया जाता था लेकिन फिर भी प्रशासन ने दावा किया कि‘”हमने 75 फीसदी आदमियों की हालत सुधार दी है।’” 
(अदम्य जीवन)  ऐसी परिस्थिति में भी वहाँ के लोगों में जुझारूपन था। डॉक्टर विद्यार्थियों ने मेडिकल बोर्ड की माँग की, जिसमें स्थानीय डॉक्टर हों। बोर्ड बनाया गया जिसको जिला या सब डिवीजन सौंपे गये।

किसानों के प्रति प्रशासन की असंवेदनशीलता और अन्याय को भी लेखक ने रिपोर्ताज में दर्शाया है। सरकार किसानों को बीज नहीं दे रही थी। परन्तु कुष्टिया के किसानों और मजदूरों में जागरूकता थी। किसानों का एक संयुक्त मोर्चा था जिसने अपनी माँग के लिए संघर्ष किया। माँग पूरी तरह नहीं तो कुछ हद तक पूरी हुई। बीजों के मिलने में भी पक्षपात किया गया था जिसमें बारखड़ा नामक यूनियन को अधिक दिया गया। गाँव-कमेटी और यूनियन-बोर्ड के मेम्बर अपने रिश्तेदारों को और जान-पहचान के लोगों को ही कार्ड देते थे। चावल का दाम बढ़ गया था और वह भी चोरी से मजदूरों की पहुँच से दूर ले जाया जा रहा था। रांगेय राघव समाज के प्रत्येक वर्ग के संघर्ष से प्रभावित थे। इन परिस्थितियों में वह समाज की स्वार्थपरता से उद्विग्न हो जाते हैं। एक रात में वह लिखते हैं “क्यों नहीं समझता मनुष्य अपना स्वार्थ जो सबका स्वार्थ हो? क्यों वह परम्परा से स्वार्थ को व्यक्ति के संकुचित रूप में बाँधता रहा है?”

वहाँ के लोग अफसरों से नाराज थे व प्रशासन और महाजनों के शोषण से त्रस्त थे। वे एक होकर अन्याय के खिलाफ़ लड़ना चाह्ते थे, वे झुकना नहीं जानते थे और उनको अपने संघर्ष का फल भी मिला। रांगेय राघव संघर्षशील एक युवक के कथन का बाँध भाँगे दाओ  में उल्लेख करते हैं “टेक दिये घुटने नौकरशाही ने, झुका दिया सर जनबल के आगे। कौन है जो हमें झुका सकेगा। हम बंगाली कभी भी साम्राज्यवाद की तड़क-भड़क से रोब में नहीं आये। हमें गर्व है बाबू हम भूखे रहकर भी अभी मरे नहीं हैं।”

मृत्यु की भयावहता

शिद्धिरगंज में अकाल से हुई भयावहता की पराकाष्ठा थी। बस्ती में कोई घर नहीं बचे थे। घरों के स्थान पर वहाँ पर घास के बीच केवल मिट्टी के ढूह रह गये थे। एक पेड़ की छाया में चौदह कब्रें थीं , वहाँ की परिस्थितियों से अभ्यस्त हो चुका एक लड़का विरक्त भाव से चिल्लाया “बाबू, एक-एक में दो-दो, तीन-तीन हैं। एक-एक में दो-दो तीन -तीन।’” (अदम्य जीवन)

तीस-चालीस लोग रोज मरते थे। ढाका की मलमल बनाने वाले जुलाहे मर रहे थे। केवल दो-चार घरों में ही ढाका की साडियाँ बुनी जा रही थीं। कपड़े बनाने वालों के पास स्वयं के लिए कपड़े नहीं थे। भूख के कारण तीन-साढ़े तीन सौ लोग गाँव छोड़ कर चले गये। चावल  मँहगे होने के कारण कुछ लोग एक वक्त  केवल शकरकंद खाकर निर्वाह करते थे। कई जगह लंगरखाने चल रहे थे जिन्हें फ्रेण्ड्स एम्बूलेन्स यूनिट चला रही थी। हिन्दू और मुसलमानों के अलग-अलग लंगरखाने थे लेकिन उनमें पर्याप्त खाना नहीं मिलता था। अब शिद्धिरगंज में सन्नाटा था। अधिकांश घरों की टीन की छतें उड़ गईं थीं या लोगों ने भूख मिटाने के लिए बेच दी थीं।

एक जगह  मिट्टी की लगभग पाच सौ के करीब कच्ची कब्रें थीं और यह भी निश्चित नहीं था कि एक-एक में एक ही आदमी दफ़नाया गया हो। वो भी कपड़ा ना होने से बिना कफ़न के दफ़नाए गए। गाँव में इतनी कब्रें हो गई कि चलने की जगह नहीं थी। लोगों को कब्रों पर चलकर जाना पड़ता था। हिन्दुओं के मरने के बाद उनकी परिणति के बारे में एक व्यक्ति बताता है कि “अगर तुम सुनना चाह्ते हो कि हिन्दू क्यों नहीं मरे,तो शीतलक्खा की धारा से पूछो कि क्यों तू शिद्धिरगंज के सैकड़ों किसानों को बहा ले गई, जिनकी हड्डियों  तक का आज पता नहीं ?” (अदम्य जीवन) खेतों में भी कब्रें थीं। हरिशंकरपुरा गाँव में भी सात सौ लोगों की आबादी में से दो सौ पचास मर गए थे।

जनमानस की आवाज़ को दर्ज करता रिपोर्ताज

रांगेय राघव के तूफानों के बीच रिपोर्ताज हिन्दी साहित्य का ऐसा अमूल्य संग्रह है जिसने बंगाल के भीषण अकाल से उत्पन्न वहाँ के जनजीवन को हर प्रकार से छिन्न-भिन्न कर देने वाली परिस्थितियों का अत्यन्त संवेदनात्मक वर्णन किया है। इस प्रकार का चित्रण हमेशा के लिए समाज की विषम तथा सत्य घटनाओं का साक्षी बन जाता है। ऐसा साहित्य देश तथा समाज की कटु सच्चाईयों को  प्रकट करता है। रांगेय राघव ने सच्ची पत्रकारिता का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए उस संकट की स्थिति में प्रशासन की स्वार्थपरता, गरीब मजदूरों, किसानों और जनजीवन के प्रति असवेदनशीलता को उजागर किया है। उनकी टीम ने वहाँ के जनमानस से सम्पर्क किया तथा उनके दुखों और कष्टों को आत्मीयता से सुना। रिपोर्ताज में लेखक का प्रशासन द्वारा कुछ ना किये जाने पर आक्रोश दिखाई देता है। इस विषम परिस्थिति में रांगेय राघव बंगाल के लोगों की जिजीविषा से बहुत प्रभावित हैं। उन्हें गर्व था कि लोग अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहते थे। उस कब्रों से घिरे गाँव में लोग चेतनाशून्य नहीं हो गए थे अपितु अभी भी उनमें जीने की लालसा थी।

रांगेय राघव की बंगाल के जुझारू आमजन के बारे में लिखी गई ये पंक्तियाँ सर्वथा प्रासंगिक हैं- “सचमुच कोई इनका कुछ नहीं कर सकता। यदि जनता में चेतना है, तो इन्हें भूखों मारने वाले नर-पिशाच नाज-चारों का अन्त दूर नहीं है।”
अमिता चतुर्वेदी
इस लेख को ओपिनियन तंदूर पर भी पढ़ा जा सकता है।

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