भौगोलिक और सांस्कृतिक विविधताओं से युक्त बुन्देलखण्ड में उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश दोनों के ही भाग समाहित है। यह प्रदेश विन्द्याचल की उपत्यकाओं से घिरा हुआ है। बुन्देलखण्ड में अनेक जनजातियाँ जैसे राउत, भील, सहारिया, शबर, कोल, निषाद, पुलिंद, किराद, नाग आदि रहती थीं जिनकी अपनी-अपनी स्वतन्त्र भाषाएं थीं। यहाँ अलग-अलग स्थान पर बोलियों का स्वरूप बदल जाता है जैसे डंघाई, चौरासी, पवारी, विदीशयीया आदि। परन्तु बुन्देली इस प्रदेश की मुख्य बोली है। पिछले 700 वर्षों से बुन्देली में साहित्य रचना हुई है जिसमें मौखिक परम्परा के महाकाव्य आल्हाखण्ड गायन शैली का विशेष महत्व है। मौखिक परम्परा का होते हुए भी आल्हा गायन बुन्देली बोली और संस्कृति का प्रथम महाकाव्य है। इसके रचयिता जगनिक हैं। यहाँ के प्रत्येक गाँव में घनघोर वर्षा के दिन आल्हा गाया जाता है। जगनिक के बाद विष्णुदास द्वारा रचित कथा काव्य महाभारत कथा और रामायण कथा बुन्देली के प्रथम ग्रन्थ हैं जिनकी रचना क्रमशः 1435 ई तथा 1443 ई में हुई।
हिन्दी साहित्य में बुन्देली भाषा को अन्य भाषाओं जैसे राजस्थानी, भोजपुरी गुजराती बृज आदि की अपेक्षा कम महत्व दिया गया है। प्रचलित माध्यमों में बुन्देली का प्रयोग देखने को नहीं मिलता। परन्तु हिन्दी साहित्य की महत्वपूर्ण साहित्यकार मैत्रेयी पुष्पा ने अपनी रचनाओं में बुन्देली भाषा को प्रमुखता दी है। उनकी रचनाओं में इदन्नमम उपन्यास उल्लेखनीय है। उपन्यास में बुन्देली भाषा सहजता से प्रवाहित होती हुई बुन्देलखण्ड के जनजीवन और परिवेश से तादात्म्य बनाए रखती है। बहुलता से प्रयोग किए जाने पर भी उससे कहानी में कहीं व्यवधान उत्पन्न नहीं होता है। बुन्देली के साथ उपन्यास में खड़ी हिन्दी बोली भी प्रयुक्त हुई है। बुन्देली भाषा विशेषकर पात्रों के आपसी संवादों और लोकगीतों में देखने को मिलती है। मैत्रेयी पुष्पा ने इस उपन्यास में बुन्देलखण्ड के शहरी तथा ग्रामीण दोनों ही परिवेश का चित्रण किया है लेकिन मुख्य रूप से इसमें ग्रामीण परिवेश का चित्रण मिलता है। अत्यन्त सहजता से किया गया स्वभाविक चित्रण बुन्देलखण्ड के वातावरण को पाठक के समक्ष प्रस्तुत कर देता है जो कि अधिकांश आधुनिक हिन्दी उपन्यासों में नहीं मिलता।
मैत्रेयी पुष्पा ने बुन्देलखण्ड के भौगोलिक, सामाजिक-सांस्कृतिक तथा राजनीतिक-आर्थिक, सभी पहलुओं को अपनी रचना का विषय बनाया है। इदन्नमम की मुख्य पात्र मन्दाकिनी एक सन्घर्षशील लड़की है जो अपने जीवन की समस्याओं से जूझने के साथ ही गाँव वालों की कठिनाईयों में भी उनके साथ सन्घर्ष के लिए तत्पर रहती है। मन्दाकिनी की कहानी के साथ अन्य अनेक पात्रों की कहानी भी समानान्तर चलती रहती है, जिनमें मन्दाकिनी की दादी ‘बऊ’ प्रमुख हैं जो निरन्तर उसका प्रत्येक कठिनाई में साथ देती हैं। ‘बऊ’ के संवादों में ही बुन्देली बोली का प्रयोग अधिक हुआ है क्योंकि किसी भी क्षेत्रीय भाषा से वहाँ की पुरानी पीढी अधिक अवगत होती है। नयी पीढ़ी उसको कम ग्रहण कर पाती है। बऊ के अतिरिक्त अन्य कुछ बुजुर्ग पात्रों के संवाद भी बुन्देली में लिखे गए हैं। मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों में बुन्देली भाषा का प्रयोग इतनी कुशलता से इसीलिए हो सका है क्योंकि स्वयं वह बुन्देली भाषा से अच्छी तरह परिचित हैं।
हिन्दी के प्रख्यात साहित्यकार राजेन्द्र यादव ने इदन्नमम
की भूमिका में लिखा है, “हिन्दी कथा-रचनाओं की सुसंस्कृत सटीक और बेरंगी भाषा के
बीच गाँव की इस कहानी को मैत्रेयी ने लोक-कथाओं के स्वाभाविक ढंग से लिख दिया है, मानो
मन्दा और उसके आसपास के लोग खुद अपनी बात कह रहे हों-अपनी भाषा और लहजे में, बुन्देलखण्डी
लयात्मकता के साथ…अपने आसपास घरघराते क्रेशरों और ट्रैक्टरों के बीच।“
आधुनिक हिन्दी साहित्य मुख्यत: खड़ी बोली का ही साहित्य है।
खड़ी बोली में संस्कृत, पालि और प्राकृत आदि शब्द निहित होते हैं जिसमें क्षेत्रीय भाषाओं
के अधिकाँश शब्द समाहित नहीं होते। इसलिए खड़ी बोली में किए गए किसी क्षेत्र-विशेष का
वर्णन वहाँ की ज़मीनी हकीकत को पूर्णत; व्यक्त नहीं कर पाता है। वहीं जब किसी क्षेत्र
का साहित्य वहीं की बोलचाल की भाषा में लिखा जाता है जिससे गाँव के लोगों के आपसी सम्बन्ध,
उनकी समस्याओं, रीति-रिवाज, संस्कृति आदि का परिचय होता है तो ग्रामीण जनजीवन का एक
सजीव चित्र उपस्थित हो जाता है। किसी स्थान की क्षेत्रीय भाषा में लिखा साहित्य उस
भाषा के संग्रह की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है।
प्रत्येक क्षेत्र की संस्कृति, रीतिरिवाज तथा मान्यताएं अलग-अलग
होती हैं। मैत्रेयी पुष्पा का अधिकांश प्रारम्भिक जीवन बुन्देलखण्ड में व्यतीत हुआ
इसलिए वह वहाँ के लोक-गीत और रीति-रिवाजों से भलीभाँति परिचित हैं। इसलिए इदन्नमम में
ग्रामीण जन-जीवन की बातचीत, लोकगीत, रीति-रिवाज, पूजा-पाठ आदि में बुन्देली बोली प्रमुखता
से देखने को मिलती है जो उनकी बुन्देली भाषा की जानकारी के परिचायक हैं।
इदन्नमम में एक भजन का उल्लेख है जिसके बोल इस प्रकार हैं,
विन्ध्य प्रदेश जिला टीकमगढ़
नगर ओरछा ग्राम,
कि जँह राजे सिरी भगवाssन।
उपरोक्त भजन में बुन्देली भाषा के प्रयोग के साथ ही विन्ध्य
प्रदेश, जिसमें बुन्देलखण्ड स्थित है, की कुछ विशेष जगहों जैसे टीकमगढ़ और ओरछा का उल्लेख
उपन्यास की क्षेत्रियता को और प्रामाणिक बनाता है।
किसी प्रदेश के लोक-गीतों से वहाँ की प्रथाओं और रीति-रिवाजों
का परिचय मिलता है। इदन्नमम में बुन्देली भाषा के कई लोकगीत वर्णित हैं जो विशेष
अवसर पर गाए जाते हैं। बुन्देलखण्ड में प्रेम के गीत या लड़की की विदा जैसे गीतों की
अपेक्षा वीर रस के लोक गीतों का अधिक प्रचलन है। इस श्रेणी के एक प्रकार के गीत का
वर्णन इदन्नमम में मिलता है जिसे सुअटा कहा जाता है। इसके गायन को सुअटा खेलना कहा
जाता है।
सुअटा को नौरता भी कहा जाता है। यह बुन्देलखण्ड का महत्वपूर्ण
त्यौहार है। इस अवसर पर हिन्दी कैलेन्डर के अनुसार क्वाँर महीने में नौ दिन विशेष पूजा
होती है जिसमें सुबह के समय सुअटा खेला जाता है। यह लड़कियों का विशेष त्यौहार है। उपन्यास
में एक विशेष सुअटा गीत को प्रस्तुत किया गया है। इस गीत का उपन्यास की मुख्य विषय-वस्तु
से कोई विशेष संबंध नहीं है परन्तु इसके माध्यम से बुन्देली भाषा के एक परंपरागत लोकगीत
की एक झलक प्रस्तुत होती है। यह पंक्तियाँ इस प्रकार हैं।
इस गीत के बोल इस प्रकार हैं,
तिन के फूल तिनही के दाने,
चन्दा उगे बड़े भुनसारे।
सारे बारे फूल सिराए,
काठ कठीले काठे से,
पाँचों भइया पंडा से।
छटई बहन ईंगुर सी।
इसी प्रकार इस क्षेत्र
में एक अन्य प्रथा को ‘कार्तिक नहाना’ कहा जाता है इस प्रथा में कार्तिक के महीने में
प्रतिदिन स्त्रियाँ एक बाबड़ी पर नहाती हैं और पूजा करती हैं। इस अवसर पर गाए जाने वाले
एक लोक-गीत का मैत्रेयी पुष्पा ने इदन्नमम में चित्रण किया है।
कन्हैया माँगता दान दही
कौ
नहात में चीर हरें सब
ही कौ
गोपिका क्यों इतरानी रे…
इस प्रथा की सबसे महत्वपूर्ण
बात यह है कि इसमें भाग लेने वाली महिलाएँ एक दूसरे से झूठ नहीं बोल सकतीं हैं। यह
इसलिए खास हो जाता है क्योंकि इस प्रथा के तहत उनको अपने अंतरंग संबंधों के बारे में,
जैसे कि पति एवं अन्य पुरुषों के साथ शारीरिक संबंधों के बारे में भी खुलकर सभी महिलाओं
को बताना पड़ता है। इस जानकारी को छिपाना महिलाओं द्वारा पाप माना जाता है। यद्यपि यह
प्रथा स्त्रियों की दैहिक-स्वतन्त्रता का परिचायक है लेकिन इसे पाप से जोड़े जाने के
कारण यह उनकी वैयक्तिकता में बाधा का कारण बन जाता है।
प्रत्येक प्रदेश की अपनी एक स्थानीय भौगोलिक पहचान होती है
जिसके वर्णन लिए वहाँ की क्षेत्रीय भाषा में कुछ विशेष शब्द होते मौजूद होते हैं। इन
शब्दों के प्रयोग से वहाँ का भौगोलिक चित्रण और प्रामाणिक हो जाता है। बुन्देली भाषा
में किए गए बीहड़ के निम्नलिखित वर्णन से भौगोलिकता और क्षेत्रीय भाषा का प्रगाढ़ संबंध
स्पष्ट होता है।
‘’जा बियाबान को क्या कहैं! रात के समय ये भरका नहीं दिखाने
थे। मट्टी के जितेक ऊँचे ढूह, उतेक ही नीची खाई! पेड़ न रूख! कटीले झूँड़-ही-झूड़!”
मैत्रेयी पुष्पा ने इदन्नमम में गाँव के राजनीतिक-आर्थिक
कठिनाइयों को भी अच्छी तरह चित्रित किया है। इदन्नमम में उन्होंने गाँव के लोगों
की अनेक परेशानियों का उल्लेख किया है। गाँव में अस्पताल की कमी उपन्यास का एक प्रमुख
विषय है जिसके लिए मन्दाकिनी लगातार संघर्ष करती है। जैसा कि इदन्नमम में चित्रित किया
गया है, ग्रामीण पात्रों को राजनीतिक दावपेंच, शहरों में उपचार, कानूनी मामलों आदि
कई कारणों से शहरी परिवेश से जुड़ा रहना पड़ता है। स्वभावतः कहानी में गाँव की क्षेत्रीय
भाषा और शहरों की खड़ी बोली संवादों के माध्यम से साथ-साथ चलती है।
अस्पताल का प्रसंग मुख्य
पात्र मन्दाकिनी से गहरे तौर पर जुड़ा हुआ है क्योंकि उसकी स्थापना मन्दाकिनी के पिता
की निरन्तर कोशिशों के कारण ही हो सकी थी। अस्पताल के उद्घाटन के दिन ही मन्दाकिनी
के पिता पर जानलेवा हमला हुआ और अन्य कई लोगों ने इस घटना से हुई भगदड़ में अपनी जान
गँवा दी। गाँव में एक अस्पताल बनने में इतना खून-खराबा हो गया। उस समय मन्दाकिनी
बहुत छोटी थी। परन्तु बड़े होकर अस्पताल के अधूरे पड़े काम की ज़िम्मेदारी को उसने स्वयं
अपने कन्धों पर उठा लिया।
उपन्यास में क्रशर और बाँध बनने से ग्रामीण-जनजीवन तथा जनजातियों
को होने वाली आर्थिक परेशानियों तथा प्राकृतिक सम्पदा के नष्ट होने का उल्लेख भी किया
गया है। कहानी में बताया गया है कि बाँध और क्रशर के कारण किसानों की जमीन बिक जाने
से उनकी जीविका का कोई स्थाई साधन नहीं बचता है। क्रशर में ब्लास्टिंग (धमाके) होने
से स्थनीय लोगों की जान को खतरा भी बना रहता है। साथ ही मजदूरों को दमा, साँस की बिमारी,
तपेदिक आदि रोगों की समस्या भी रहती है।
जंगल पर सरकारी अधिकार हो जाने से बुन्देलखण्ड की जनजातियों
के विस्थापन और आर्थिक संकट का भी इस उपन्यास में उल्लेख मिलता है। शिकार करके तथा
लकड़ी काटकर जीवन-यापन करने वाली भील, सहारिया और राउत जाति के लोगों को मजदूरी करने
पर विवश होना पड़ता है जिसके लिए उन्हें ठेकेदारों द्वारा उपयुक्त पारिश्रमिक नहीं दिया
जाता है। मन्दाकिनी गाँव वालों को काम दिलवाने के लिए भी संघर्ष करती है। ग्रामीण तथा
शहरी पात्रों को लेखिका ने खड़ी बोली और बुन्देली बोली के माध्यम से अत्यन्त तारतम्य
के साथ जोड़ा है।
डॉ धीरेन्द्र वर्मा ने ‘हिन्दी साहित्य कोश’ में कहा है कि
‘लेखक द्वारा अपनी रचना में ‘आंचलिकता की सिद्धि के लिए स्थानीय दृश्यों, प्रकृति,
जलवायु, त्यौहार, लोकगीत, बातचीत का विशिष्ट ढंग, मुहावरे, लोकोक्त्तियाँ, भाषा के
उच्चारण की विकृतियाँ, लोगों की स्वभावगत व व्यवहारगत विशेषताएं, उनका अपना रोमांस,
नैतिक मान्यताओं आदि का समावेश बड़ी सतर्कता से किया जाता है।’
इदन्नमम में उपरोक्त सभी पहलुओं को देखते हुए इसे एक आंचलिक
उपन्यास कहा जा सकता है। आंचलिक उपन्यास में किसी अंचल या क्षेत्र-विशेष के सभी पहलुओं
का समावेश होता है तथा साथ में उस क्षेत्र की भाषा को विशेष महत्व दिया जाता है। लेकिन
इदन्नमम में आंचलिकता के सभी पहलुओं के होने पर भी मैत्रेयी पुष्पा इसको आंचलिक उपन्यास
नहीं मानती हैं। जैसा कि उन्होंने अपने साक्षात्कार में कहा है,
“इदन्नमम बुन्देलखण्ड अंचल का उपन्यास है इसलिए इसको
आँचलिक माना जा सकता है। लेकिन यह आँचलिक बिल्कुल नहीं है। अब इदन्नमम पूरे देश में
पढ़ाया जा रहा है। वहाँ लोग इस उपन्यास को आँचलिक न मानकर इसे सामाजिक उपन्यास मानते
हैं।‘ गौरतलब है कि जब किसी समाज के जीवन का विविधता और समग्रता से चित्रण होता है
तब वह सामाजिक उपन्यास का प्रतीक बन जाता है। मैत्रेयी पुष्पा यह भी कहती हैं कि ‘आज
पूरे देश के गाँवों की स्थिति बुन्देलखण्ड की तरह ही है। इसलिए मैं उसे पूरे देश का
उपन्यास मानती हूँ क्योंकि यह पूरे देश से सम्बन्धित है। इसलिए यह सारे देश का ही है।”
देश के अधिकाँश गाँवों की एक जैसी स्थिति होने के कारण, किसी भी मुख्यधारा के उपन्यास
में ग्रामीण परिवेश एवं समस्याओं का चित्रण, ग्रामीण जीवन को राष्ट्रीय स्तर पर पाठकों
के समक्ष समग्रता से प्रस्तुत करने में अहम भूमिका निभाता है।
किसी भी अंचल की भाषा को साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान मिलना अत्यन्त आवश्यक है। बुन्देली भाषा पर आधारित साहित्य कम ही देखने को मिलता है। इसकी अपनी कोई प्रमुख साहित्यिक परंपरा नहीं बन पाई है। हिन्दी साहित्य में ही बुन्देली भाषा का कुछ स्वरूप मिलता है। किसी भी क्षेत्र-विशेष की भाषा ग्रामीण जनजीवन में अधिक बोली जाती है। उस क्षेत्रीय भाषा का साहित्य में जब समावेश हो जाता है तब पाठक उस अंचल से और खासकर वहाँ के ग्रामीण परिवेश से अधिक निकटता से जुड़ जाता है। भाषा को साहित्य में प्रमुखता मिलने से उसके संग्रहित होने तथा उसके विकास की सम्भावनाएं बढ़ जाती हैं। क्षेत्रीय भाषा के साथ साहित्य में उस प्रदेश के भौगोलिक, राजनीतिक-आर्थिक तथा सामाजिक-सांस्कृतिक सभी पहलुओं के चित्रण द्वारा वहाँ की विशेषताओं को समग्रता से जानने का अवसर मिलता है।
आप इस लेख का अंग्रेज़ी संस्करण Syaahi.in पर पढ़ सकते हैं।
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