Tuesday, March 19, 2019

एक सड़क-दुर्घटना का समाजशास्त्र




सात दिसम्बर 2017 की रात एक दुर्घटना ने मेरे जीवन में अनेक नये अनुभव जोड़ दिए। रोज की तरह जिम से, स्कूटी पर लौटते हुए, मैं अपनी कॉलौनी तक पहुँचने वाली थी। डिवाईडर के कट पर खड़ी हुई थी, बस सड़क को पार कर सामने जाना था। हेलमेट पहने हुए थी। मैंने सीधे हाथ का इंडीकेटर दे दिया था। वाहन एक के बाद एक आ रहे थे, मेरी नजर बाँईं तरफ़ लगी हुई थी। जब मैंने देखा कि अगला वाहन कुछ दूर है तो सड़क पार करने लगी। थोडा सा बढ़ी थी कि सहसा एक बीस-बाईस साल के मोटर साईकिल सवार लड़के ने मेरी स्कूटी में जोर से ट्क्कर मार दी। वह लड़का इतनी तीव्रता से आया कि न तो मुझे वह आता हुआ दिखा और न ही मुझे टक्कर होने की आवाज सुनाई दी, जो लोगों को काफ़ी दूर तक सुनाई दी थी। मुझे केवल पता चला कि मुझे कुछ हुआ है। शायद हल्की सी बेहोश हो चुकी थी। बस इतना ध्यान रहा कि कोई पूछ रहा है कि आपके पति का क्या नाम है, जो मैंने बता दिया। पूछने वाले पास ही स्थित पुलिस चौकी के आदमी थे।
सबसे सुखद बात थी कि उन पुलिस कर्मचारियों ने मेरी बहुत सहायता की। उन्होंने मेरे पति और बेटों को मेरे फोन से सूचित किया। इसी बीच उन्होंने एम्बुलेंस बुला कर अस्पताल ले जाने का इंतजाम कर दिया था अन्यथा मैं चलती सड़क पर घायल अवस्था में पड़ी रहती। मेरे चेहरे, सिर और नाक पर चोट लगी थी जिनसे खून बह रहा था। पुलिस के सहयोग से मैं बच गई परन्तु उनकी एक बात से आघात पहुँचा। उन्होंने कहा कि “मैडम की गलती थी”। पुलिस के कर्मचारी हमेशा पुलिस चौकी में ही बैठते हैं। वे कोई ट्रैफिक पुलिस नहीं है जो सड़क पर खड़ी रहती है। पुलिस चौकी भी घटना स्थल से कुछ दूरी पर थी। फिर वे वहीं बैठे हुए कैसे देख सकते थे कि किसकी गलती है। जबकि लड़के के घर वाले खुद कह रहे थे कि उनके लड़के के कारण मुझको इतनी चोट लग गई। इस समय यही लगा कि बाहरी दुनिया में गलती किसी की भी हो पर थोपी औरत पर ही जाती है। मन ही मन उन पुलिस वालों को धन्यवाद देती हूँ पर उनकी सोच के कारण उनके पास जाकर आभार व्यक्त करने का मन नहीं हुआ। पुलिस के लिए मन में जो बुरी धारणा थी वो दूर तो हो गई पर उनके मन में औरतों के लिए बसी धारणा से सामना भी हुआ।
कुछ ठीक होने पर जब घर से बाहर निकली, तो एक साथ दो विपरीत सोच वाले लोगों से साक्षात्कार हुआ। पहली बात यही लोगों के लिए अजीब हो जाती है कि मैं 58 साल की उम्र में जिम जाती हूँ और दूसरी बात यह कि स्कूटी से जाती हूँ। ये दोनों ही बातें एक सीमित दायरे में केन्द्रित समाज के लिए असहनीय हैं। परन्तु कुछ स्वतन्त्र मानसिकता के लोग भी समाज में हैं जिनकी वजह से उन लोगों को प्रोत्सहन मिलता है जो कुछ अलग करना चाहते हैं। जिम में मिलने वाले पहले इंसान की बात सुनकर हिम्मत बढ़ी। उन्होंने कहा, “आप अपना व्यायाम छोड़ना नहीं। आपसे हमको प्रेरणा मिलती है।“ साथ ही वहाँ का ट्रेनर मुझे पहले की तरह व्यायाम करने के लिए प्रेरित करता रहा।
पर इसके उलट वहाँ का दूसरा ट्रेनर मेरे हाल-चाल पूछकर बोला, “अब आप स्कूटी मत चलाना”। उसे मैंने उत्तर दिया “वो तो मैं चलाँऊगी।“ कुछ दिन बाद वहीं एक पति-पत्नी आए। उन्होंने भी मेरे हाल-चाल लिए। फिर पति महाशय बोले “आप स्कूटी चलाना छोड़ दो”। पत्नी भी उनकी बात से सहमत थीं जबकि वो स्वयं गाड़ी चलाती हैं परन्तु उन्हें यह कहने का हक शायद इसलिए मिल गया कि वह मुझसे उम्र में काफ़ी छोटी हैं। मैंने कहा कि सड़क पर अधिकांश दुर्घटनाएं पुरूषों के कारण और पुरुषों के साथ ही होती हैं पर उनसे कोई नहीं कहता कि अब वे कोई भी वाहन ना चलाएँ । यदि एक औरत दुर्घटनाग्रस्त हो जाती है, तो उसे वाहन चलाने से तुरंत मना किया जाता है। एक बुजुर्ग महिला ने दुर्घटना के बाद मेरे हाल-चाल पूछने के बाद कहा, “अब तुम ये स्कूटी-विस्कूटी चलाना छोड़ दो।“
इस दुर्घटना से पहले भी एक लड़के ने मुझसे कहा था कि तीस साल की उम्र के बाद औरतों को दुपहिया वाहन नहीं चलाना चाहिए क्योंकि अगर उनकी कोई हड्डी टूट जाए तो मुश्किल में ठीक होती है। यह बात भी उसने तब कही जब मैं स्कूटी चालू कर सड़क पर निकलने वाली थी। यानि निकलने से पहले ही महाशय ने शगुन कर दिया। मेरी एक परिचित महिला स्कूटी चलाना चाहती थी। जब अपने घर में उन्होंने अपनी इच्छा जताई तो उनका बेटा बोला “मम्मी आप गिर गईं और चोट लग गई तो खाना कौन बनायेगा?” ऐसी बातें महिलाएं हँसते हुए बताती हैं क्योंकि वे यह सब सुनने की आदी हो गई हैं। वे किसी से कुछ सवाल नहीं करतीं।
मुझे लोगों से बातें सुननी पड़ी क्योंकि मैं एक औरत हूँ और बड़ी हो गई हूँ। औरतों को बाहर निकलने से रोकने से, इसी प्रकार नियन्त्रित किया जाता है, जिससे वे घर के ही काम करें और विवाह से पहले के अपने पिछले जीवन के पढ़ने-लिखने, खेलने, स्वयं अपने काम करने, वाहन चलाने आदि के जो कुछ अच्छे अनुभव अर्जित किए हैं, वे पूरी तरह भूल जाएं। फलस्वरूप स्त्रियाँ बड़े होकर केवल खाना बनाने, सफाई करने और दूसरों का जीवन संभालने में ही समय व्यतीत करती रहती हैं। आदमी उन्हें ये सब करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं क्योंकि घर के काम निर्विघ्न होते रहने से उन्हें फ़ायदा रहता है। औरतें अच्छे खाने, अच्छी सफ़ाई, घर की सजावट आदि की प्रशंसा की खुशी में डूबी रहती हैं। इस प्रकार महिलाएं स्वयं एक घिसी-पिटी जिन्दगी जीकर ही खुश रहने पर विवश हो जाती हैं और चाहती हैं कि बाकी औरतें भी वैसे ही जीती रहें। इसीलिए बाहरी दुनिया में औरतों की सक्रियता बहुत कम रहती है और उनका अनुपात आदमियों से बहुत कम रहता है। जो औरतें बाहर निकलती हैं, आदमी चाहते हैं कि वे भी बाहर न निकलें, जिससे औरतों की बाहर के कामों के लिए उन पर निर्भरता बनी रहे।
इस दुर्घटना ने चली आ रही दकियानूसी सामाजिक सोच को मेरे सामने पुनः प्रकट कर दिया। सच तो यह है कि महिलाओं को अपनी इच्छा के काम चुनने की स्वतन्त्रता नहीं है। समाज के पुरुष बताते हैं कि एक औरत क्या कर सकती है और क्या नहीं। वे स्वयं निर्णय नहीं ले सकतीं। महिलाओं की स्वतन्त्रता छीनने वालों में युवा पीढ़ी के लोग और स्वयं महिलाएं भी शामिल हैं, जो बहुत निराशाजनक है। औरतों को नहीं मालूम कि घर में ही सीमित रहकर वे एक नीरस जिन्दगी गुजारती हुई केवल अपनी उम्र के पन्ने पलटती रहती हैं। उन पलों को, जो उनके पास हैं, बोझिल मन से जीती हुई, आगे आने वाले जीवन के खाली पन्नों का हिसाब लगाती रहती हैं। बाहर की दुनिया से जुड़कर, अपने लिए जीने से मन में जिस ऊर्जा का प्रवाह होता है, उसका अनुभव घर में ही सीमित रहकर उन्हें कहाँ हो सकता है?

अमिता चतुर्वेदी


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