भारतीय सामाजिक
संरचना में अधिकांश महिलाओं का दायरा घरेलू कार्यों के लिये और पुरुषों का बाहरी
कार्यों के लिये सुनिश्चित किया गया है। महिलाएँ बचपन से ही घरेलू कार्यों को
सीखती हैं जिससे व्यस्क होने तक घर की सभी कामों की जिम्मेदारी उठा सकें।
युवावस्था से बुढ़ापे तक उनको सभी घरेलू कार्य करने पड़ते हैं और आवश्यकता होने पर
भी पुरुषों का सहयोग नहीं मिलता। यह स्थिति घरेलू और कामगार दोनों ही महिलाओं की
है। घरेलू कार्यों में महिलाओं की दिनचर्या में कोई साप्ताहिक अवकाश नहीं होता और
ना ही सेवा निवृत्ति की कोई उम्र सीमा होती है। जब तक उनका शरीर शिथिल नहीं होता
या वो अस्वस्थ नहीं हो जातीं तब तक घरेलू कार्यों में उनकी व्यस्तता बनी रहती है।
राष्ट्रीय प्रतिदर्श
सर्वेक्षण कार्यालय, सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के 2011-2012 के
68 वें दौर के सर्वेक्षण पर आधारित “घरेलू
कार्यों के साथ-साथ विनिर्दिष्ट क्रियाकलापों में महिलाओं की भागीदारी” नामक रिपोर्ट इसी व्यवस्था की पुष्टि करती है। इसके
अनुसार घरेलू कार्यों में कार्यरत महिलाओं का अनुपात ग्रामीण और नगरीय, दोनों ही क्षेत्रों
में निरन्तर बढ़ा है।
ग्रामीण क्षेत्रों में
घरेलू कार्यों में कार्यरत महिलाओं का अनुपात 2004-05 में
35.3% से बढ़ कर 2009-10
में 40.1% और 2011-12 में 42.2% हुआ।
नगरीय क्षेत्रों में घरेलू कार्यों में कार्यरत महिलाओं का अनुपात 2004-05 में 45.6%
से बढ़ कर 2009-10 में
48.2% रहा जो 2011-12 तक
अपरिवर्तित रहा।
स्त्रोत: राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय |
14 वर्ष
से अधिक आयु की 60% ग्रामीण और
64% नगरीय महिलाओं ने घरेलू कार्यों
में व्यस्त रहने के लिए किसी और सदस्य की अनुपलब्धता को मुख्य कारण बताया। पितृसत्तात्मक
सोच ने महिलाओं को घर और बाहर दोनों क्षेत्रों में प्रभावित किया है। घरेलू
कार्यों में व्यस्त महिलाओं के अलावा कामगार औरतों को भी परिवार के सभी दायित्व
निभाने होते हैं। इन कार्यों में अधिकांशत: पुरुषों का कोई सहयोग नहीं रहता है क्योंकि
वे घरेलू कार्यों को हेय दृष्टि से देखते हैं। कुछ पुरुष घरेलू कार्यों को करना
चाहते भी हैं लेकिन ये समाज में बहुत अवहेलना योग्य बात मानी जाती है।
सर्वेक्षण दिखाता है
कि लड़कियाँ पाँच वर्ष की उम्र से घर में काम करने लगती हैं। 5 से 14 वर्ष की उम्र
के वर्ग में ग्रामीण क्षेत्र में 2.7% और नगरीय क्षेत्र में 1.8% लड़कियाँ घरेलू
कार्यों में व्यस्त रहीं। यह अनुपात 15 से 64 वर्ष की उम्र के दौरान बढ़ जाता है। इस
आयु वर्ग में 61.4% महिलाएँ ग्रामीण क्षेत्र में और 65.3% महिलाएँ नगरीय क्षेत्र
में घरेलू कार्यों में व्यस्त रहीं। 65 वर्ष के बाद महिलाओं की घर के कामों में
व्यस्तता कम हो जाती है। ग्रामीण क्षेत्र में इस आयु वर्ग की महिलाओं का घरेलू
कार्यों में व्यस्त रहने का अनुपात 37.2% रहा जबकि नगरीय क्षेत्र में 41.5% रहा।
उम्र के अनुसार घरेलू कार्यों में महिलाओं की भागीदारी स्त्रोत: राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय |
अपरोक्ष रूप से 5
वर्ष की उम्र से लड़कियों को घरेलू कार्य सिखाये जाते हैं जिनमें धीरे-धीरे वे
निपुण होती जाती हैं। 15 से 65 वर्ष तक उनका घरेलू कार्यों में अधिक व्यस्त रहने
का कारण उनकी शारीरिक क्षमता ही है जो एक उम्र के बाद कम हो जाती है। इससे यह
स्पष्ट होता है कि महिलाओं को तब तक घरेलू कार्य करने पड़ते हैं जब तक वो अस्वस्थ
या शारीरिक रूप से दुर्बल ना हो जायें।
घरेलू कार्यों में
अत्यधिक व्यस्तता के बावजूद महिलाओं में आत्मनिर्भरता की ललक बनी रहती है। 34% ग्रामीण
क्षेत्रों एवं 28% नगरीय क्षेत्रों की 14 वर्ष
से अधिक उम्र की महिलाओं ने अपने घरेलू परिसर में ही कार्य करने की इच्छा व्यक्त की।
करीब 54% महिलाओं
के पास इच्छित कार्यों को करने
का अनुभव भी प्राप्त था।
जो महिलाएँ बाहर न जाकर
दिनभर घर के कार्य करती हैं उन्हें कामगार नहीं माना जाता क्योंकि इस काम का उनको आर्थिक
लाभ नहीं मिलता है। घरेलू कार्यों में महिलाओं की कुछ वर्षों में बढ़ती भागीदारी एक
निराशाजनक परिवर्तन है क्योंकि समाज में स्थान पाने के लिये उनका आर्थिक रूप से निर्भर
होना आवश्यक है। पारम्परिक रूप से घर की प्रथाओं को निभाती हुई और घरेलू कार्यों
को करते हुए जीवन व्यतीत करने वाली महिलाएँ, जिनके पास जीवन का कोई आर्थिक आधार
नहीं होता, सभी आवश्यकताओं के लिये पुरुषों पर निर्भर रहतीं हैं। घरेलू कार्यों को
करने वाली महिलाओं का आत्मविश्वास घर की चारदीवारी तक ही सीमित रह जाता है। घर से
अकेले बाहर निकलने पर उनकी स्तिथि नितांत असहाय और निरीह प्राणी की ही रहती है
क्योंकि उनमें आत्मविश्वास की कमी हो जाती है, जो उनकी पुरुषों पर पूरी तरह से निर्भरता
का कारण बनती है।
-अमिता चतुर्वेदी
(इस लेख को आप Opinion तंदूर पर भी पढ़ सकते हैं)
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