Monday, September 20, 2021

सूखा बरगद में परिलक्षित होती मंज़ूर एहतेशाम की सामाजिक परिस्थितियों से उपजी व्याकुलता

 


हाल ही में हिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार मन्जूर एहतेशाम का निधन होने से स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य के एक विशिष्ट अध्याय का अंत हो गया। उनका जन्म 4 अप्रैल को भोपाल में हुआ था और वहीं पर उन्होंने अपनी अंतिम साँस भी ली। उन्होंने अनेक उपन्यास, कहानियाँ व नाटक लिखे जिनके लिए उन्हें सम्मानित किया गया।

उनकी प्रमुख कृतियों में से एक सूखा बरगद उपन्यास उनके बाह्य और आंतरिक संसार का एक विशिष्ट प्रतिबिम्ब रहा है जिसके लिए उन्हें श्रीकान्त वर्मा स्मृति सम्मान और भारतीय भाषा परिषद कलकत्ता का सम्मान प्राप्त हुआ। यह उपन्यास विभाजन के बाद के दौर को याद करते हुए तत्कालीन घटनाओं और माहौल का वर्णन करता है और साथ ही में 1971 में भारत-पाकिस्तान के युद्ध के समय की घटनाओं को भी समेटे हुए है। उपन्यास की कहानी इसके प्रमुख पात्र रशीदा और सुहेल के माध्यम से देश के वातावरण के युवा वर्ग पर पड़ने वाले प्रभाव पर टिप्पणी करती है।

सूखा बरगद में मुस्लिम समाज के मानसिक द्वन्द को व्यक्त किया गया है, जिसमें लेखक के समकालीन अनुभवों का आभास मिलता है जिससे उपन्यास के पात्रों की सोच और संघर्षों को एक स्पष्टता मिलती है। वर्तमान माहौल को देखते हुए यह उपन्यास आज के समय में भी प्रासंगिक है।

उपन्यास की कहानी भोपाल के एक शिक्षित मुस्लिम परिवार पर आधारित है जिसके सदस्यों के माध्यम से देश में अल्पसंख्यक समुदाय को पेश आने वाली समस्याओं का चित्रण किया गया है। मन्जूर एहतेशाम ने दोनो पक्षों के झगड़े के पीछे राजनीतिक मंसूबों को रेखांकित किया है। साथ ही उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम समुदायों में धार्मिक कट्टरता का अनेक स्थानों पर उल्लेख किया है।

हालांकि यह कहानी अपने में विभिन्न आयाम समेटे हुए है पर इस लेख में सामाजिक पहचान की प्रतिक्रिया-स्वरूप थोपे जाने वाले अपराध-बोध एवं परायेपन को विशेष रूप से रेखांकित किया गया है। एहतेशाम कहीं-न-कहीं मुसलमानों में व्याप्त अजनबीपन और असुरक्षा की भावना से बेचैन हैं। उपन्यास के अनेक प्रसंगों से यह स्पष्ट होता है।

लेखक ने सुहेल के माध्यम से भारत की धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक प्रणाली में औपचारिक अवसरों पर एक विशेष समुदाय की सांस्कृतिक रीतियों जैसे कि भूमि-पूजन, संस्कृत के गीत एवं पाठ आदि के प्रचलन का उल्लेख करते हुए देश के लोकतांत्रिक मूल्यों पर सवाल उठाया है। “हम हिंदी तक राजी हुए तो कहने लगे अब तो तुम्हें संस्कृत भी सीखनी पड़ेगी ! क्या होगा इस मुल्क में मुसलमानों का!" सुहेल के इस कथन के माध्यम से लेखक ने मुसलमानों में व्याप्त असुरक्षा की भावना को इन्गित किया है

लगातार अपनी वफादारी और सच्चाई पर प्रश्नचिन्ह लगाए जाने को लेकर मुस्लिम समाज के लोगों को पहुँचने वाली ठेस और उद्विग्नता को एहतेशाम ने इस उपन्यास में अनेक स्थान पर उजागर किया है। कहानी में सन 71 के हिन्दुस्तान-पाकिस्तान युद्ध के दौरान पाकिस्तान में बसे अपने रिश्तेदारों के लिए चिंतित भारतीय मुसलमानों की परेशानियों का वर्णन किया गया है। युद्ध के संकटपूर्ण हालात में भी स्वजनों के लिए खुलकर चिंता व्यक्त नहीं कर पाने की विवशता को रशीदा के परिवार के माध्यम से दर्शाया गया है। भयग्रस्त परिस्थितियों में अपनों की चिंता करना एक सहज मानवीय स्वभाव है लेकिन इसके कारण खुद को सन्देह की दृष्टि से देखा जाना कहीं-न-कहीं उन्हें आक्रोश से भर देता है।

मंजूर एहतेशाम ने बरगद के पेड़ के माध्यम से सुहेल की मनोदशा में उसकी पुरानी याद और वर्तमान के आभास के वैषम्य को बहुत संवेदना से व्यक्त किया है। जिस हिन्दुस्तान को वह एक हरे-भरे बरगद के रूप में देखता था और जिसकी छाया में उसे शान्ति मिलती थी अब वही बरगद का पेड़ प्रेम रूपी जल के अभाव में सूख गया है जहाँ छाया की अपेक्षा शरीर को झुलसाने वाली गर्मी और एक वीरानापन है। अब उसके लिए हिन्दुस्तान एक सूखा बरगद हो चुका था।

सुहेल एक ऐसा मुस्लिम युवक था जिसे हिन्दुस्तान से लगाव था और जहाँ रहते हुए उसके मन में कोई असुरक्षा की भावना नहीं आती थी। वह सभी समुदायों के बारे में निष्पक्ष विचार रखता था लेकिन प्रतिकूल वातावरण के प्रबल होने के कारण उसके मन में हिन्दुओं के प्रति असुरक्षा और हताशा की भावना उत्पन्न होती गई। उपन्यास में एक स्थान पर वह सोचता है, "मुसलमान ज्यादा-से-ज्यादा चाहता क्या है? क्या बराबरी के साथ मुल्क में रहना भी न चाहे !" 

एहतेशाम ने तत्कालीन सामाजिक अराजकता और क्रूरता को सुहेल के प्रस्तुत संवाद के माध्यम से इंगित किया है- “जमशेदपुर करबला बना हुआ है- मुसलमानों को मार-मारकर नास कर डाला है। वह जो एक राईटर था- हिन्दू-मुसलमान भाई-भाई की थीम पर उर्दू में जिंदगी-भर कहानियाँ लिखता रहा, उसे भी निपटा दिया! अखबार में उसकी छोटी सी तस्वीर छपी है।"

सुहेल को जो बरगद के सूख जाने का आभास हुआ था, वह सच लगने लगता है।  

सूखा बरगद हिन्दू-मुसलमानों के आपसी संबंधों की विषमताओं को निष्पक्षता से प्रस्तुत करता है। लेखक द्वारा उपन्यास में निरंतर दोनों समुदायों में सामंजस्य बिठाने का दृष्टिकोंण लक्षित होता है जो अंत में एक हताशा और असुरक्षा की भावना में बदल जाता है। इन भावनाओं को मंजूर एहतेशाम ने सूखे बरगद के प्रतीकात्मक रूप में बहुत संवेदना से व्यक्त किया है।   

 

 

 

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