Saturday, April 7, 2018

कभी रूठी गौरैयाँ जब फ़िर मिलीं


यादों के बहुत से झरोखे होते हैं। किसी भी समय कोई एक झरोखा एक झोंके से खुल जाता है और हम यादों में खो जाते हैं। एक याद से जुड़कर दूसरी याद, दूसरे से तीसरी, आगे और बढ़ते हुए पुराने जीवन में कुछ समय के लिए पहुँचा देती है। ऐसी ही कुछ यादों में से बचपन और युवावस्था से जुड़ी मेरी प्रतिदिन की दिनचर्या में घुली-मिली गौरैया, एक झरोखे से दिखती है।
झाँसी में घर का आँगन जहाँ इक्कीस वर्ष का जीवन बीता। आँगन में तीन तरफ़ बरामदा, पीछे एक दरवाजा। बरामदों में खम्बों के ऊपर लगी हुई जाली, उन जालियों के अन्दर गौरैयाँ घोंसले बना लेती थीं। रात में सब लोग आँगन में सोते थे। सुबह आँख खुलते ही लेटे-लेटे उन जालियों पर बैठी हुई गौरैया दिख जाती थीं। गौरैया को हम चिड़िया कहते थे और चिड़िया का मेरे लिए एक ही अर्थ होता था गौरैया। चिड़िया बार-बार अपनी चोंच में कुछ खाने की चीज लाती थी, जाली के अन्दर से चिड़िया के बच्चे चीं-चीं करते हुए अपनी चोंच निकालते थे और चिड़िया बाहर से उनको खिला देती थी। कुछ देर तक लेट कर मैं यही देखती रहती थी।
दोपहर में दादी किचिन में बैठकर खाना खाती थीं। खाते समय वो रोज कुछ चावल चिड़ियों के लिए बरामदे में अपने सामने डाल देती थीं। एक साथ बहुत सी चिड़ियाँ आकर चावल खाने लगती थीं। कभी चिड़िया बरामदे में लगे शीशे पर ठक-ठक करती हुई, अपनी चोंच मारने लगती थी। कमरों में पंखों के ऊपर चिड़िया अपना घोंसला बना लेतीं थीं। चलते पंखे में उनके आने का डर होता था। हम उन्हें बचाने के लिए पंखा बन्द कर देते थे। कहीं कपड़ों के तार पर बैठीं गौरैयाँ, कहीं पानी पीतीं गौरैयाँ, कहीं दाना चुगती गौरैयाँ, एक सामान्य सी बात थी। दिन-भर हमारी दिनचर्या में शामिल थीं गौरैयाँ।
समय बदला, शहर बदला, जीवन का प्रवाह बदला, मन का प्रवाह व्यस्तताओं में अटक गया। नये शहर, नये परिवेश में भी कुछ समय गौरैया देखने को मिलीं, पर उनसे जुड़ाव नहीं हो सका। जिन्दगी भाग रही थी। बच्चों के बचपन में बीत रही थी। इसी सब में यह ध्यान ही नहीं गया कि कब गौरैया कहीं खो गई है। एकाएक दिखनी ही बन्द हो गई। ऐसा नहीं लगता था कि उनको देखना भी दुर्लभ हो जाएगा। उन्हें बुलाने का बहुत प्रयास किया, कभी बर्तन में पानी भरकर रखा, कभी चावल डाले। भूले-भटके गर्मियों में कभी एक-दो गौरैया दिखी। बहुत खुशी हुई। एक दिन किचिन की खिड़की पर आकर बैठ गई लेकिन उसे वापस लौटना पड़ा क्योंकि खिड़की पर जाली लगी थी। मन में एक टीस सी उठी।
पिछले दिनों ऊटी और मैसूर जाने का अवसर मिला। अचानक एक चिड़िया दिखी, देखा तो गौरैया थी,  फ़िर तो पूरे ऊटी में पेड़ों पर, रास्ते में, घरों में, बगीचों में, अपने आस-पास दाना चुगती हुई गौरैयाँ दिखने लगीं। लग रहा था कि हमारे प्रदेश से नाता तोड़कर गौरैया ने एक अलग शान्त स्थान चुन लिया है या फ़िर यहाँ से गौरैयों ने कभी अपना नाता तोड़ा ही नहीं।  कोलाहल से दूर, पेड़ों की हरियाली,गौरैयों के लिए सब तरह से उपयुक्त वातावरण।

हम बदल गए हैं। गौरैया एक घरेलू चिड़िया है। वो घरों में घोंसला बनाती थी। बाहर उन्हें और जानवरों का खतरा रहता है। अब हमारे घर सब ओर से बन्द रहते हैं। इसके अतिरिक्त हरियाली कम होती जा रही है। एक बहुत बड़ा कारण बढ़ता प्रदूषण है। अधिकांश रूप से घने पेड़ों वाले बगीचों के शान्त, प्रदूषण रहित, और ठंडक वाली जगहों पर ही गौरैयों की परिचित चहचहाहट सुनाई देती है। इसीलिए अब बचपन का वैसा ही घर होते हुए भी, गौरैया वहाँ नहीं मिलतीं। मन में एक आशंका थी कि गौरैयाँ कहीं विलुप्त हो जायें परन्तु ऊटी, मैसूर में एक बड़ी संख्या में गौरैया देखकर लगा कि जिन्दगी में अब भी कुछ पहले जैसा भी है। 

- अमिता चतुर्वेदी


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